Wednesday 2 May 2012

आपकी अपनी जमीन पर कवितायेँ भी खिनुवा के पेड़ की तरह उगती हैं | यही आपकी वास्तविक काव्य- भूमि है | अपनी भाषा और व्यंजना में भी बेजोड़ | खिनुवा तो थोड़े में बहुत कुछ कह जाती है | बधाई |