Saturday 28 July 2012

गरीबी का पहाड़
छाती पर धरे
हवा-धूप-ताप -रोशनी का
रास्ता रोके खड़ा
बियाबान -सा जीवन
जहरीले-कटीले झाड-झंखाड़
इतनी जडी-बूटियाँ
औषधियां अमरतत्व-दायिनी
जैसे हवाएं जीवन-प्रदायिनी
सभी पर अजगरी दैत्य-सा आधिपत्य
कुछ लोगों ,घरानों
विश्व-विजेताओं का
अभी पशुता का न्याय धरती पर
अभी अंधकार घटाटोप
कि एक हाथ खा रहा
दूसरे हाथ को
कर्म-संलग्न जो
रेत को हटाता
उठाकर फेंकता
साफ़ करता ,रास्ता बनाता
पहाड़ों को काटकर
दर्रों के बीच से
वही ग्रास बनता काल का
उम्र से पहले
जो छीलता घास वही
सबसे पहले खांसता
मरीज़ दमा का
चूल्हे में फोडती आँखें
गृहणियां अनगिनत
इस इक्कीसवीं शती के
मुहाने पर |
लम्बी कथा पुराण-सी
कहीं खतम होने का
नाम नहीं लेती
एशिया ,अफ्रीका के
लैटिन अमरीकी बिरादरी
जिसका प्राण
सोख लिया गया
इतिहास की पाशविक
अहमन्य ताओं और लालची
आकांक्षाओं ने
लापरवाही ,जड़ता ,अकर्मण्यता
प्रमाद अपने भी शामिल
इस सूची में |

Thursday 26 July 2012

इस शिक्षाप्रद संस्मरण में जहां केदार बाबू के रचनात्मक व्यक्तित्व के कई अनजाने पहलू उद्घाटित हुए हैं वहीं आपकी ग्रहनीयता और उनकी कविता के काव्य-तत्त्व तक पहुँचने की क्षमता भी |केदार जी कविता को जिन जीवन-क्षेत्रों में ले गए ,वहाँ सामान्य मध्यवर्गीय कवि की पहुँच नहीं हो पाती |वे नागार्जुन ,त्रिलोचन जी के साथ एक अलग धारा को प्रवाहित करते रहे ,जिसने कविता को अज्ञेय प्रवर्तित व्यक्तिवादी काव्य-प्रवाह से बचाया ,जो शीत-युद्ध के दिनों में,सत्ता और प्रलोभन के बल पर खूब तेजी से फली-फूली थी |बधाई स्वीकार करें, केशव जी |

Tuesday 24 July 2012

मायामृग जी ,इस बदलने में खुद का बदलना भी शामिल है ,मध्यवर्गीयता को छोड़ते हुए उस मेहनतकश वर्ग के साथ सच्चे मन से कदम मिलाकर चलना भी शामिल है ,जिसके तन से पसीने की बदबू आती है ,जिसके पास न कोई बड़ा पद देने को है,न पुरस्कार ,न विदेश यात्रा ,न वैभव न कोष , इसके विपरीत वह आपसे ही चाहता है कि उन प्रलोभनों को भूल जाएँ जो साम्राज्यवाद के थैले में आठ पहर चौंसठ घड़ी पड़े रहते हैं |ऐसा जब-जब हुआ है ,पूंजी के साम्राज्य से लड़ा जा सका है |
सिटी रेल ये सिटी रेल
आना -जाना बस एक खेल
नदियाँ पार कराती है ये
घाटी में चढ़ जाती है
दर्रे से ना डरती है ये
बीहड़ में घुस जाती है
चलती है तो लगती है
जैसे चलती लम्बी बेल |
पूरब में ले जाती है
तो पश्चिम में पहुंचाती है
उत्तर-दक्खिन घुमा-फिराकर
अपने घर ले आती है|
मन से चंचल ,तन से रहती
लेकिन बिलकुल ठावाठेल |

Monday 23 July 2012

सिटी रेल ये सिटी रेल
रखती सब में हेलमेल |
जो भी आता जाता है ,
उसको पास बुलाती है
अपने साथ बिठा करके
मंजिल तक पहुंचाती है
चलती है तो लगता है
जैसे चलती लम्बी बेल |
चलती है तो इसका सरगम बजता है
इससे आने जाने वाला
काम समय पर करता है
चूक अगर हो जाए तो
हो जाती है रेलमपेल |
अभि सभी का प्यार अभि
अभि को करते प्यार सभी
अभि अभी तो बच्चा है
कली-सा कोमल कच्चा है
बड़े-बड़ों से अच्छा है
मन का बिलकुल सच्चा है
गीत सुनाता गा-गा-कर
जैसे बजे गिटार अभी |
सबका राज-दुलारा है
सब की आँख का तारा है
सब दुनिया से न्यारा है
दूध की निर्मल धारा है
सरगम की स्वर-लहरी सा
बहती रस की धार अभि |
छोटा-सा एक खिलौना है
सुन्दर-सा मृग-छौना है
माँ का रौना-भौना है
फूल भरा एक दौना है
खेल खिलाता है हम सबको
खेलों का संसार अभि |
साम्राज्यवाद का मतलब शक्ति-सत्ता की निरंकुशता ही तो होता है ,वह बड़े स्तर पर देश या देशों की होती है और छोटे स्तर पर व्यक्ति या व्यक्तियों की | जिन वरिष्ठों का अक्सर उल्लेख किया जाता है वे भी किसी न किसी सत्ता का केंद्र बनकर ही ऐसा करते हैं | इस तरह के व्यक्तिवादी साम्राज्यवाद का विरोध यदि नहीं हो सकता तो साम्राज्यवाद का क्या खाकर होगा ?जिनमें अपने बीच के ऐसे 'साम्राज्यवाद- शत्रुओं ' का विरोध करने का साहस नहीं होता ,उनका विरोध 'थियरी 'तक सीमित रहता है ,'प्रैक्टिस 'शायद ही बन पाता हो |

Thursday 19 July 2012

हर जगह वही

हर जगह वही
सूरज,चाँद
,धरती के बेडौल उभार
क्रूरताओं से भरी ऊँच-नीच
विश्वासघाती छलपूर्ण समानताएं
चकाचौंधी विकास का डरावना अन्धेरा
इकतरफा अदालतें
स्कूली विभाजन
अस्पताली अमानवीयताएं
मध्यवर्गीय नपुन्सक्ताएं
और धोखे भरी मौकापरस्ती

हर जगह वही
समुद्र ,पहाड़ ,नदियाँ
हर जगह
भीतर के तनाव
हर जगह भाड़
हर जगह
वानस्पतिक सघनताओं के बीच
पसरा थार जैसा रेगिस्तान
ये बाहर के महासागर
मेरी प्यास के लिए
बेहद अपर्याप्त हैं
हर जगह वही
नदियाँ ,पेड़-पौधे
और मेरी अहमन्यताएं
सौन्दर्य और प्रेम -प्रतिकूल
जीवन-सलिला के तटों पर
नर-नारी वेश में आता
डकैतों और जल-दस्युओं का आतंक,
आधिपत्य
इनकी पूजा -प्रार्थना
और अभ्यर्थना में लगा
प्रेत सरीखा एक उदरम्भरि वर्ग
उलझाता सवालों को
आने नहीं देता जीवन-पटल पर
खेत जोतते हल जैसे सवालों को
भटकते सवालों पर इन
चला जाता हूँ मैं
अपना घर-बार छोड़कर
उन नदियों के किनारे
जो बहती हैं बीचों-बीच
जिन्दगी के ढूहों ,धोरों और
रेतीले प्रसारों में |
आओ पतंग उडाएं बच्चो
आओ पतंग उडाएं
लाल हरी और पीली
आसमान सी नीली नीली
कुछ मटमैली ,कुछ चमकीली
झंडी-सी फहराएं |
चरखी मांजा लेकर हाथ
कर लें आसमान से बात
रामू दे श्यामू को मात
हम ताली पटकाएं|
आओ बच्चो ,पतग उडाएं

Wednesday 18 July 2012




पीले फूल

मोरडेल में मैंने देखे
पीले पीले पीले फूल
संग हवा के झूमते -गाते
पीले पीले पीले फूल

जगमग बस्ती फूलों की
ज्यों बड़ी गिरस्ती फूलों की
खुशबू भरे उसूलों की
मेघ घिरे हैं आसमान में
फिर भी गाते पीले फूल

रंग-बिरंगा आँगन इनका
काम-काज सब इनके मन का
कुछ भी लोभ नहीं है धन का
इसीलिये तो नाच रहे हैं
गाते गाते पीले फूल |


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रेल चली,रेल चली
पेनशर्स्ट से रेल चली
मिरान्डा को रेल चली
बोंडाई से आती है
क्रोनाला को जाती है
क्रोनाला से लौट के
बोंडाई पहुंचाती है
पेनशर्स्ट से चल दी रेल ,
पहुँच गए हम मोरडेल
मोरडेल पर सीटी बोली
जा पहुंचे हम ओटली
नदी बीच में आती है
रोज तराने गाती है
नावों में बैठाती है
रेल चली,रेल चली
पुल से पार कराकर
हमको कोमो पर पहुंचाती है
अब बच्चो बजाओ ताली
जा पहुंचे जनाली
जनाली से कुछ ही पैंड
जा पहुंचे हम सदरलैंड
गार्ड के हाथ में चावी
पहुंचा दिए किरावी
बिना भूल ,बिन खामियां
पहुँच गए हम गामिया
लेकर पूरा टांडा
जा पहुंचे मिरांडा |

मेरी दिन-चर्या

घर से पैदल
चलकर जाता ,
दादाजी की उंगली पकडे
कभी गोद में भी चढ़ जाता 
स्टेशन पर टिकट कटाता ,|
आते रेल
तुरत चढ़ जाता ,
बैठे-बैठे खाना खाता ,
कविता गाता, गीत सुनाता ,
ठीक समय
शिशु-घर में जाता ,
खूब खेलता और खिलाता ,
डैनी जैसा कहे बताता ,
काम रोज का पूरा करके
वापस फिर घर को आ जाता |
दादी के संग गप्प लड़ाकर
धीरे-धीर मैं सो जाता |
मम्मी आती पापा आते ,
जगकर सबका ,
मन बहलाता |
धूम मचाता
खाना खाकर
फिर सो जाता |

,

Monday 16 July 2012

लाला को कौन-कौन
घर पर मिलेंगे
मम्मी मिलेंगी ,
पापा मिलेंगे
लाला को कौन-कौन
घर पर मिलेंगे |
दादी मिलेंगी
दादू मिलेंगे
लाला को कौन-कौन
घर पर मिलेंगे |
नानी मिलेंगी
नानू मिलेंगे
लाला को कौन कौन
घर पर मिलेंगे |
हवा चली ,हवा चली
ठंडी ठंडी हवा चली
सूरज ने ढकी रजाई है
बादल ने आँख दिखाई है
सर्दी की ऋतु आई है
मन को भाती मूंगफली |
वेस्टफील्ड में आए हैं
तन-मन सब सरसाए हैं
रंग ने रंग दिखाए हैं
खिल गयी मन की कली-कली
चमक भरा बाज़ार है
जीवन का आधार है
सब कुछ ही व्यापार है
यही बात बस एक खली |
--------२२ जून २०१२

           
लाला हलवा खायेगा
अभि हलवा खायेगा
हलवा लेकर क्रोनाला के
बीच पे जायेगा
मीठा-मीठा है हलवा
ताजा-ताजा है हलवा
मेवों के संग मिल-करके
खुशबू देता है हलवा |
जो खायेगा वही एनर्जी पायेगा ||
हलवा हिन्दुस्तानी है ,
डिश जानी-पहचानी है
जो खायेगा उसके तन में
लाता रंग-जवानी है |
जो खायेगा ,आगे बढ़ता जायेगा |
मीठे से ये है बनता
देशी घी भी है डलता
आते या सूजी के संग में
मीठा जल भी है मिलता |
जो खायेगा, अपना रंग जमाएगा |

Thursday 12 July 2012

दादा जी ,दादा जी
कहाँ चले तुम दादा जी
सिरपर टोपी ,हाथ में डंडा
पहन के कपडे सादा जी |
दादा जी का डंडा है
ज्यों गंगा का पंडा है
यही एक हथकंडा है
और नहीं कुछ ज्यादा जी |
दादी जी की लाठी है ,
आगे की सहपाठी है ,
बूढों की परिपाटी है ,
ये बोझ सभी ने लादा जी |
अब की जब हम आएँगे ,
खूब मिठाई लायेंगे ,
अभि को खिलायेगे ,
रहा हमारा वादा जी |
या रोगी संसार में ,कितने रोगी लोग |
जितने तरह की औषधि ,उससे ज्यादा रोग ||
लाख-करोड़ों इंजनियर ,डाक्टर बने कितेक |
पैसे के हैं यंत्र सब ,इन्सां बना न एक ||
जो भी घर में घुस गया ,केवल उसकी मौज |
ईंटा-गारा ढो रही ,बाकी उनकी फ़ौज ||
मेघा आए उमड़-घुमड़ कर
नभ में छाए उमड़-घुमड़ कर
जब चाहें आ जाते हैं
सूरज को धमकाते हैं
हमको आँख दिखाते हैं
हाथों में छाते पकडाए ,उमड़-घुमड़ कर
आते हैं तो आते हैं
अन्धकार कर जाते हैं
घर में हमें छ्हिपाते हैं
पानी के पीपे ढरकाए ,उमड़-घुमड़ कर

Wednesday 11 July 2012

आष्ट्रेलिया आए हैं
गीत विदेशी गाए हैं
अपनी-अपनी सुनते हैं
अपनी-अपनी कहते हैं
अपनी बोली भाषा के संग
पेंशर्स्त में रहते हैं
जैसे गाय के जाए हैं |
रोज मिरांडा जाता हूँ
अभि को पहुंचाता हूँ
अवधि पूर्ण हो जाने पर
वापस लेकर आता हूँ
दस से चार बजाए हैं |
वेस्टफील्ड एक मॉल है
बाजारू जंजाल है
इस चमक-दमक की दुनिया में
बुरा हमारा हाल है
मन ने प्रश्न उठाए हैं |
क्रोनाला का सागर-तट
मेरे मन का अक्षय-वट
हरदम भरता रहता है
मेरे भीतर घट प्रति घट
ह्रदय-सिन्धु सरसाए हैं |

Tuesday 10 July 2012

धूप खिली,धूप खिली
मीठी-मीठी धूप खिली
इधर खिली उधर खिली
उधर खिली इधर खिली
आँगन-आँगन धूप खिली
आसमान से आती है
आकर हमें जगाती है
परियों सी मुस्काती है
बातें करती भली -भली |
कभी पेड़ पर चढ़ती है
अन्धकार से लडती है
ठण्ड से अकडती है
खेल खेलती गली-गली |