Wednesday 29 August 2012

गढ़ का तिरछा परकोटा ---------
एक था आदमी बहुत बहुत
नहीं मिला मकान किराये पर
जयपुर महानगर में
वह नागरिक था
सबसे निचली सीढ़ी का
माँ ने जन्म दिया था जैसे
वह उसी मार्ग से आया था
जिससे आती है पूरी दुनिया
दोष उसका था यही
अपराध भी कि
क्यों नहीं कुछ कर पाया कि
कला सीख लेता गर्भ -परिवर्तन की
यह दुर्ग है मित्र
बहुत पुराना
रक्त-दुर्ग
इसकी गलियों का
चक्रव्यूह बनता रहा सदियों से
मन की चट्टान पर बना
अहम् के उत्तुंग शिखर पर
वृहदाकार विस्तीर्ण परकोटा























विजेंद्र जी ने रिल्के के बहाने से बड़ी महत्त्वपूर्ण बातें कही हैं ,लेकिन वे उन लोगों के लिए ही अर्थवान हैं जो कविता और जीवन में एक बड़ा और गंभीर रिश्ता मानते हैं और अपने व्यवहार से उसको प्रमाणित भी करते हैं |ये बातें उन लोगों को बहुत बुरी और व्यर्थ लग सकती हैं , जो आज भी अपने प्रगतिशील चेहरे के भीतर कला की कीमियागीरी में ज्यादा विश्वास रखकर कविता करते हैं |उनको कला और जनवादी अंतर्वस्तु वाली कविताओं में जनवाद से ज्यादा कलावादी रूप-विधान इसलिए भी प्रभावित करता है क्योंकि तुरत चर्चा और तुरत प्रसिद्धी मिलने की सहूलियत यहीं रहती है |उस जनवाद का क्या फायदा जहां कवि को लम्बी उपेक्षा और कुछ साधनापरक जीवन जीने की जरूरत रहती है | जो केवल कविता में ही जीवन-मूल्यों की डींग नहीं हांकता बल्कि अपने जीवन व्यवहार से भी उनको कुछ जीकर दिखलाता है |जो कला बिना जीवन के अंतर्मन में उपज जाय ,,उसमें परिश्रमी , मानवीय तथा साफ-सुथरा जीवन जीने की शर्त से भी कवि बच जाता है |कलावाद के होकर आप मनचाहा मूल्यरहित जीवन जी सकते हैं वहाँ सभी तरह की छूट होती है जब कि मेहनतकश जन के साथ रहने में असुविधाओं और उपेक्षाओं के जंगल से गुजरना पड़ता है | कलावाद में गडबडझाले की कला बहुत चलती है और एक क्रूर अवसरवाद की जगह भी निकल आती है | कलावाद के साथ रहने में सबसे बड़ा फायदा बुर्जुआ समाज और पूंजी के खुले बाज़ार में कबड्डी खेलते रहने की छूट मिलना भी है | व्यक्ति-स्वातंत्र्य के वितान के नीचे आ जाने से अनेक तरह के अख्तियार पाने के अवसर सहज प्राप्त हो जाते है | जैसे जनवाद की एक पूरी जीवन व्यवस्था और जीवन पद्धति होती है वैसे ही कलावाद की भी | ऐसे लोग मुक्तिबोध और अज्ञेय दोनों को एक तराजू में तोलने की कला भी जानते हैं और जिन्दगी भर तेरी भी जय जय और मेरी भी जय का राग अलापते हैं |ये कबीर का उदाहरण तो देंगे ,लेकिन उनके ' दुखिया दास कबीर ' की पूरी तरह अनदेखी करके | वे इस बात पर गौर नहीं फरमाते कि आखिर अच्छा -खासा चादर बुनकर कमाई करने वाला कबीर स्वयं को दुखिया क्यों मानता है ?

Thursday 23 August 2012

परसाई जी जैसा ऊंचाइयों वाला लेखक ही संबंधों में इतना गहरे उतरकर लिख सकता है |जहाँ वास्तव में मनुष्यता का लहलहाता हुआ तालाब हैं वहीँ ऐसी लहरें उठ सकती हैं |मुक्तिबोध अपने जीवन और कविता में एक जैसे थे , उनमें वह फांक नहीं थी जो आमतोर पर कवियों - साहित्यकारों में देखने को मिलती है |लिखना कुछ और करना कुछ , | कितने साहित्यकार हैं , जिनके ऐसे संस्मरण हैं ?पढ़ते हुए आज भी आँखों में आंसू आये बिना नहीं रहते |

Wednesday 22 August 2012

ये नदी नदी ,ये नदी नदी
पानी से रहती लदी फदी
पानी ही इसका जीवन है
पानी ही इसका तन मन है
पानी ही इसका आँगन है
पानी ही एकमात्र धन है |
पानी इसका यह पानी की
पानी की अपनी निकट सगी |
पानी को रखने से जीवन
पानी बिन सब कुछ सूना है
पानी आँखों का निकल गया
तो सब कुछ मिट्टी चूना है
पानी होगा तो यह होगी
पानी की इसकी शर्त बदी |





Tuesday 21 August 2012

 कविता के समाजशास्त्र को लेकर जो चिंता श्री प्रफ्फुल कोलख्यान जी ने जाहिर की है ,उसका स्वागत किया जाना चाहिए किन्तु कविता के समाजशात्र की बजाय कविता और समाज के रिश्तों के सभी आयामों का तर्कसंगत एवं प्रामाणिक विश्लेषण करते हुए पहले कुछ जरूरी बिन्दुओं को साफ़ कर लेना चाहिए ,इनमें कविता और समाज के साथ कवि को भी रखना आवश्यक है |कविता और समाज पर बात करते हुए अक्सर कवि को छोड़ दिया जाता है ,जबकि कविता और समाज के बीच कवि महत्त्वपूर्ण कड़ी होता है | यह कवि ही तो है जो सारी लीला रचता है | ,अत कविता और समाज के बीच उस कवि-चरित्र का विश्लेषण भी बहुत जरूरी है ,जिसके ऊपर मुक्तिबोध ने अपने समय में बहुत जोर दिया था |उस समय उनको अपने आस-पास के साथी मित्र -कवि उच्च एवं उच्च-मध्यवर्गीय जीवन जीने की आंकाक्षाओं के जंगल के भीतर विचरण करते दिखाई देते थे इस उत्तर -आधुनिक समय में तो हालात और विकट हो गए हैं |इसलिए जो भी विचार-प्रक्रिया बनती है वह बहुत ऊपरी और सतही चर्चा की तरह होकर रह जाती है |मुक्तिबोध की इस बात का हमारे पास क्या जवाब है -----जिसमें डोमाजी उस्ताद के साथ जुलूस में साहित्यकार भी शामिल है |इसलिए कविता की चिंता के साथ-साथ जीवन की चिंता उससे ज्यादा होनी चाहिए ,|खासतौर से उस समाज-वर्ग की, जहाँ समाज के साथ- साथ जीवन भी बचा हुआ है |समाज तो अनेक तरह के लोगों से मिलकर बनता है किन्तु जीवन ----सच्चे अर्थ में वहीँ होता है जहाँ लोगों की 'आत्मा'' जीवित रहती है |इसलिए मुक्तिबोध ने आत्मा के सवाल को कविता में जिस तरह से रचाया-बसाया है ,वैसा कोई दूसरा नहीं कर पाया |उनके लिए कविता ,जीवन-मरण जैसा प्रश्न बन गया था उन्ही के शब्दों में " जीवन चिंता के बिना साहित्य -चिंता नहीं हो सकती |जीवन चिंता के अभाव में साहित्यिक आलोचना निष्फल और वृथा है |किन्तु यह जीवन - चिंतन व्यापक जीवन जगत में घनिष्ठ और गंभीर भाग लिए बिना रीता है |" कहने की जरूरत नहीं कि मुक्तिबोध ''व्यापक जीवन-जगत में घनिष्ठ और गंभीर भाग " लेने की बात करते हैं |इसके अभाव में कविता का जो समाजशास्त्र बनेगा वह मध्यवर्गीय समाज की सीमाओं का अतिक्रमण नहीं कर पायेगा , जैसे कविता नहीं कर पाती है |
 

Monday 20 August 2012

नीलाम्बुज जी ,आज तक जो भी दुनिया हमारे सामने है वह यदि मानव - मन की रचना नहीं है तो और क्या है ?यह अलग बात है कि वह सबकी मनभावनी दुनिया न हो |प्रयत्न लगातार यही हो रहे हैं कि यह सबके मन की बनती चली जाए |अभी यह वर्गीय मन के अनुसार बनी है ,इस वजह से वर्ग - संघर्ष के नए-नए रूप सामने आते रहते हैं |आपने मनोमय कोष की बात सुनी होगी |यही मन है जो सारे झगडे-फसादों की जड़ है |आपने सुना होगा कि "मन के हारे हार है और मन के जीते जीत" कहावत वाली बात | सूर का एक मशहूर पद भी आपने अवश्य सुना होगा ----ऊधो , मन नाही दस-बीस | मन अन्य प्राणियों का भी होता है ,लेकिन मष्तिष्क (जो मन ही है )के पिछड़ जाने के कारण वह प्रकृति के समानांतर अपनी वैसी दुनिया नहीं बना पाया ,जैसी आदमी ने बना ली है |यद्यपि उसके सीमित मन की भी अपनी दुनिया होती है |पशु- पक्षियों पर रचे गए साहित्य में उनके मन को खोजा जा सकता है |इसी तरह पेड़ों और वनस्पति तक की यात्रा की जा सकती है |बहरहाल मुझे ऐसा ही लगता रहा है |इसी तरह जैसे व्यक्ति-मन होता है वैसे ही सामूहिक मन भी होता है |कबीलों ,जाति-समूहों ,समुदायों ,भाषिक-समूहों,धर्म-सम्प्रदायों और राष्ट्रों का निर्माण इसी सामूहिक मन की वजह से होता है |वर्गीय मन भी सामूहिक मन का ही एक रूप होता है |फेस बुक पर भी एक सामूहिक मन नज़र आता है ,अपनी व्यक्तिगत भिन्नताओं के साथ |

Sunday 19 August 2012

कवि लिखता है कविता
छपता है पत्रिकाओं में
सुनाता है कविता गोष्ठी में
पढता है ,पढवाता है
प्रकाशित करवाता है संग्रह
चर्चा होती है
करवाई जाती हैं चर्चाएँ
पुरस्कार पाता है
पाने के जुगाड़ करता है
प्रशंसाओं के पुल बांधे जाते हैं
पर उसमें जो लिखा है
उस बात पर एक कदम चलने में
मरने लगती है नानी
बात बोलती है जरूर
पर पैरों पर नहीं चलती
जिस रोज पैरों पर
चलने लगेगी बात
उस रोज सब कुछ बदल जायेगा |
मुझे इंतजार उस दिन का है
जब बात बोलेगी नहीं
सिर्फ चलेगी ,चलेगी |














Friday 17 August 2012

रात में मिली
आजादी की भोर में
एक रेखा पतली-पैनी
काली बिल्ली की चमकदार आँखों -सी
आती नज़र
तो नयी लहरों पर
नाव के आ जाने का भरोसा
और राष्ट्र की चिर-दलित आत्मा के
उन्नयन का सवाल
विकलांग बच्चे सा
पीठ पर लदा देता दिखाई
जिसकी गति अपनी नहीं
प्रसव पीड़ा से पूर्व
दिख गए थे लक्षण भविष्य के
प्रत्येक आँख का आंसू पौंछना
बना देता भावुक
अब तो यह सपना भी नहीं
आधी रात में उगे सूरज का |

सवाल अपनी जगह
दुर्लंघ्य घाटी-सा खडा
आंसू बहते नदी की तरह
कुछ भव्य-विराट रूपाकारों के प्रमाण
गणित के मानवीय प्रमेय i
नहीं कर सकते हल य-
छल से
नहीं पाला जा सकता
सत्य-शिशु को ,
रंगमंच की पूरी रोशनी का पता
भेड़ों -बकरियों की गणना
और मंडियों से देश-भक्ति का
देकर मन बहलाने वालों का जमावड़ा ,
जंजीरों में जकड़े
पालतू श्वान
नहीं पहचान सकते
उत्तर दिशा में ध्रुव तारे को |
सप्त-ऋषियों के उदित होने पर
किसान जाता रहा
हल-बैल लेकर खेतों पर
सवाल उगे नहीं
जमीन से अंकुरों की तरह
चमगादड़ों की तरह
लटकाया गया उलटा
नाव को घसीटा गया
छिछले पानी में |
इंजन में सवार लोग
करते फैसला
पटरियों के भाग्य का
आधी रात का सूरज
अभी अँधेरे में है |






,






















Wednesday 15 August 2012

१५ जुलाई २०१२ ,रविवार ,
आज यहाँ आये हुए हमको एक माह पूरा हो गया |सुबह ओल्ड्स पार्क में घूमने के लिए गया |पिछली बार जब २०११ में यहाँ आये थे ,तब रोजाना इसी पार्क में घूमने जाया करता था |अब इसमें पहले से हरियाली और ज्यादा बढ़ गयी है |सुविधाएं भी बढ़ गयी हैं |इसमें घूमते हुए परिवेश की शान्ति और निर्मलता की वजह से सुखानुभूति बढ़ जाती है |परिवेश और मन के बीच गहरा रिश्ता होता है |जैसा परिवेश वैसा मन ,और जैसा मन वैसा परिवेश |
साहित्य की रचना में लेखक के मनोमय जीवन की भूमिका होती है अर्थात उसके परिवेश से जैसा उसका मन बना है वैसे ही साहित्य का सृजन वह करता है | जो लेखक परिवेश को जितना आत्मसात करके अपने सम्पूर्ण व्यक्तित्व का अंग बना लेता है उतना ही भाव -समृद्ध उसका लेखन होता जाता है |यदि लेखन में गहराई नहीं आ पा रही है ,तो इसका सीधा-सा मतलब है कि उसका अपने परिवेश से गहरा रिश्ता नहीं बन पाया है लेखक का परिवेश बहुस्तरीय होता है ,आज के जमाने में विश्व-परिवेश से लगाकर ,राष्ट्रीय,स्थानीय ,पारिवारिक और लेखक के निजी मनोमय परिवेश तक |इनमें जिस लेखक की जितनी गहरी , व्यापक और बहुस्तरीय पैठ होगी ,लेखन की गहराई और व्यापकता भी उसी पर निर्भर करेगी | परिवेश और व्यक्ति का रिश्ता अपने आप नहीं बनता | इसके लिए लेखक को ज्ञानात्मक और संवेदनात्मक परीक्षा के दौर से गुजरना पड़ता है |
उसका जीवन और परिवेश से जितना ज्ञानात्मक एवं संवेदनात्मक लगाव होगा ,उतनी ही उसकी कला में जीवन की समृद्धि तथा आत्मगत सचाई का प्रकाश आता चला जायेगा |
मोरडेल सबर्ब में स्थित एक भारतीय स्टोर से घर-गृहस्थी का सामान खरीदते हैं ,वहां हिंदुस्तान के बारे में जरूरी जानकारी देने के उद्देश्य से ----असल बात तो यह है कि विज्ञापनों के माध्यम से व्यवसाय करने के उद्देश्य से ------द इंडियन और इंडियन लिंक ---दो पत्रिकाएँ मुफ्त में मिल जाती हैं |इसमें यहाँ रहने वाले भारत और आष्ट्रेलिया ----दोनों के बीच में रिश्ते को व्यक्त करने वाली सूचनाओं का संकलन किया जाता है |इनमें भी --द इंडियन ---पत्रिका में विविधता ज्यादा है |कागजी मुफ्तखोरी यहाँ बहुत ज्यादा है और उसका कारण है ,जिन्दगी में बढ़ता पूंजी का दखल |पूंजी व्यवसाय से आती है और व्यवसाय विज्ञापन से बढ़ता है |विज्ञापनों से ही लोगों को उपभोक्ता में बदला जाता है |इस बात की किसी को परवाह नहीं होती कि इसमें कागज़ की कितनी बर्बादी होती है और कागज की बर्बादी से पर्यावरण कितना प्रभावित होता है |यहाँ आदमी से ज्यादा वह व्यापारी नज़र आता है |जिसका एक ही काम है कि व्यक्ति ही नहीं बल्कि हर स्थिति ,कला ,संस्कृति सब कुछ व्यापार में बदल जाय |आदमी के रिश्तों को भी पूरी तरह व्यापार में बदल दिया जाय ,ऐसा हो भी रहा है |आदमी और आदमियत के बीच में पूंजी आकर खडी हो गयी है |पूंजी ही एकमात्र पैमाना रह गया है आदमी की नाप-जोख का |फिर आदमियत को कौन पूछने वाला है |
  'द इंडियन ' पत्रिका में सन २०११ में आष्ट्रेलिया में हुई जनगणना के आंकड़ों से यहाँ की आबादी , भाषा ,संस्कृति का एक परिदृश्य सामने आया |इस देश में हर पांचवें साल में जनगणना होती है और उससे देश के भावी विकास के लिए निर्णय लेने में मदद मिलाती है |इससे पहले २००६ में जनगणना हुई थी |इन की तुलना करने पर मालूम हुआ कि यहाँ भारतीयों के आप्रवासन की गति में १०० प्रतिशत की दर से बढ़ोतरी हुई है |यहाँ के न्यू साउथ वेल्स के मल्टी कल्चरल बिज्निश पेनल के अध्यक्ष निहाल गुप्ता के हवाले से बतलाया गया है कि विगत ५ वर्षों में यहाँ भारतीय समुदाय की आबादी एक लाख सैंतालीस हज़ार से बढ़ कर दो लाख पिचानवे हज़ार हो गयी है |इनमें एक लाख ग्यारह हज़ार तीन सौ इक्यावन हिन्दी भाषी हैं |इन आंकड़ों से मालूम हुआ कि पिछले पांच वर्षों में आष्ट्रेलिया आने वालों में सबसे अधिक तादाद भारतीयों की तेरह दसमलव सात प्रतिशत रही |अब यहाँ राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी भाषियों का नौवां स्थान है |पंजाबी तेरहवें स्थान पर हैं |भारतीयों में हिंदी भाषी चार दसमलव पांच ,पंजाबी चार दसमलव चार ,गुजराती और बंगाली अलग-अलग एक दसमलव दो ,तमिल एक दसमलव एक पांच प्रतिशत हैं |इनके अलावा उर्दू भाषी ,तेलुगु , मलयाली ,मराठी और कन्नड़ एक प्रतिशत से कम हैं |२०११ की जनगणना से मालूम हुआ कि यहाँ के हैरिस पार्क सबर्ब की आबादी में बहुत बड़ा बदलाव यह आया है कि इसे यहाँ का लिटिल इंडिया कहा जाने लगा है |इसमें गुजराती भाषियों की संख्या बीस दसमलव चार प्रतिशत है जो यहाँ के अंगरेजी भाषी १८. ७ प्रतिशत से ज्यादा है |इनके अलावा हिंदी भाषी ८.३, पंजाबी ६.५ ,तेलुगु २.८ और १.१ तमिल अलग से हैं |कुल मिलाकर ४३ प्रतिशत भारतीय इस सबर्ब में रहते हैं |" केम छो " यहाँ "नमस्ते " से ज्यादा बोला जाता है |होर्न्स्बी सबर्ब में ऑस्ट्रेलियनों और चीनियों के बाद तीसरा नंबर भारतीयों का है |लिवरपूल सबर्ब में ४.५ प्रतिशत हिंदी भाषी हैं |यहाँ के सबसे प्राचीन बसावट वाले पैरामाटा सबर्ब में २०
प्रतिशत से अधिक भारतीय निवास करते हैं |
सिडनी की बसावट आष्ट्रेलिया में सबसे पुरानी है |पुस्तक में बतलाया गया है कि यहाँ के पहले सर्वेयर जनरल थोमस मिशेल ने इस अंचल की आदिवासी बोलियों के स्थान एवं नदी वाची नामों का संकलन कराया था ,जिससे इसकी पुरानी पहचान को बनाए रखा जा सके |इसी वजह से आज अनेक उपनगरों ,स्टेशनों ,गलियों आदि के नाम आदिवासी बोलियों के प्रचलन में हैं |इसका विरोध संकीर्ण नजरिये वाले लोगों द्वारा किये जाने पर और आदिवासियों की बोलियों के शब्दों के उच्चारण में कठिनाई आने के कारण लचीला रुख अपनाया गया |आज कई जगहों के नाम यद्यपि इनकी अपनी भाषा अंगरेजी के हैं किन्तु उनके साथ साथ आदिवासियों की बोलियों के नाम भी खूब प्रचलन में आ गए हैं |

 
चलो चलें स्कूल ,
अभि के चलो चलें स्कूल
एक हाथ में बैग अभि का
एक हाथ में फूल
खेलेंगे सबके साथ-साथ
गायेंगे सबके साथ-साथ
नाचेंगे सबके साथ-साथ
खायेंगे सबके साथ-साथ
जग के छल-बल को भूल
खुशियों के पेड़ उगायें
रंगों के सुमन खिलाएं
सपने भी खूब सजाएँ
आगे ही बढ़ते जाएँ
झाडें मन की धुल |
पानी के पेड़ लगाओ
मन को सरस बनाओ
पानी के पेड़ लगेंगे
धरती के मन सरसेंगे
सरसेगा जग भी पूरा
जन-गन के मन सरसेंगे
खुशियों के बाग़ लगाओ
पानी ही तो जीवन है
पानी ही तन मन धन है
पानी रंजन ,पानी अंजन
पानी ,पानी का खंजन है
पानी की तान सुनाओ |

Monday 13 August 2012

लाला लाला ललमुनिया
लाला बजाए हरमुनिया
सा रे गा मा के सुर सजता
उंगली धरता वो सुर बजता
सुन ले ओ सारी दुनिया |
गाता गीत बजाता बाजा
प्यारा-प्यारा सा अभि राजा
समझे रे कोई गुनिया |

लाला बजाए हरमुनिया |
संग-संग में दादी गाती
पापा गाते मम्मी गाती
गाती संग रुनिया -झुनिया
लाला बजाए हरमुनिया |

Sunday 12 August 2012

कवि-कर्म के साथ' लोक' के रिश्ते को लेकर बहस कीअच्छी शुरूआत भाई शिरीष कुमार मौर्य ने की है | दरअसल ,लोक के मामले में सबसे ज्यादा गड़बड़ अंगरेजी के 'फोक'शब्द ने की है जिसकी तरफ नील कमल भाई ने सही इशारा किया है |दूसरी बात यह भी है कि मार्क्स की धारणाओं के साथ इस का बस इतना सा मेल बैठता है कि इतिहास कि मोटी-मोटी सामान्य गति के साथ किसी समाज की उसकी अपनी विशिष्टताएं भी होती हैं |लम्बे समय तक भारतीय समाज की उत्पादन व्यवस्था में खेती-किसानी की हिस्सेदारी रही आने की वजह से हमारे यहाँ एक समृद्ध लोक-साहित्य (फोक-लिटरेचर ) वाचिक रूप में ,बाद में कुछ लिखित रूप में भी ,मौजूद रहा है जिसकी स्मृतियाँ हमारे उन मित्रों के जीवनानुभवों में गहरे रूप में अंकित हैं कि वे उसे नए अर्थ-संबंधों की नयी 'शास्त्रीयता 'बन जाने के बाद भी भूल नहीं पाते |वह कहीं उनके मनोमय जीवन में तरंग सी पैदा करता रहता है और नए रूप में वह 'सर्वहारा' तक की अर्थ व्याप्ति हासिल करने का प्रयास करता है |आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने जब पश्चिम की उपनिवेश-परस्त शास्त्रीयता के समक्ष ,तथा तुलसीदास की ' लोक-वेद' परम्परा के बीच से अपने समय के लिए नए ----लोकमंगलकारी ---विधान के लिए इसे आविष्कृत किया तो उनके जमाने के रीतिवादी ----रस-अलंकार-वादी -----आचार्यों को बड़ा नागवार गुजरा था कि अच्छे-भले हजारों सालों से चले आ रहे शास्त्रीय विधान में यह --लोक-का अनावश्यक फच्चर क्यों ?लेकिन लोक-तंत्र के नए राजनैतिक परिवेश में भी इसको नयी परिस्थितियों में जगह नहीं मिलेगी यह चिंता की बात है | ,इस वजह से अभी तक इस शब्द का 'पिछड़ापन' दूर नहीं हो पाया है |मेरे हिसाब से इस शब्द को पूरी और नयी समृद्धि आज की नयी रचनात्मकता से मिल रही है |यह 'शास्त्र की रूढ़ जकडबंदी ' और किसी भी तरह की 'कुलीनता और आभिजात्य ' के विरोध में आज की रचनाशीलता को आगे ले जाने वाला साहित्य-पद लगभग बन चुका है |कोई माने या न माने कुछ बात तो इसमें अवश्य है ,जो इसे चर्चा के केंद्र में रखे हुए है |

Thursday 9 August 2012

पहाडी ढलानों,-उठानों से
समुद्री झंझावातों के आधुनिक रूपवान कुचक्री गठजोड़
अन्तर्मुखी भव्यता में आत्मलीन
विराटता के सिकुड़े-सिमटे एकाकी पुंज
दमकते-खनकते बहुस्तरीय
विश्व-बाज़ार की चंद्रमुखी इमारत
रूप-सम्मोहित मोद-विलासी आंगन में बिछा
सुघड़-सलोनापन और
लावण्य-सरिता सी प्रवहमान
पहाडी कामनाओं इच्छाओं -लालसाओं
लिप्साओं -अभीप्साओं दमित आकांक्षाओं के
सतत लीला-समारोहों में मग्न
मध्यवर्गीय उच्चता की अधोगामी प्रवृत्तियाँ
यौनेच्छापूर्ति के सामंती सपने
राजसी विवाह-समारोह
और आकाशी सीढ़ियों से ऊपर तक जाने की अकेली तमन्ना
अकेली निजताओं की लज्जित कर देने वाली अंधेरी चांदनी रातें
मलिनताओं के उज्ज्वल तामझाम
हमारे समय की मुख्य अभिलाक्षनिक्ताएं
इक्कीसवीं शती के आमुखी सरोकार
द्वार पर बजते दम्भी नगाड़े
मेहनती-आस्थाओं की बेचैनी
बढ़ती जाती लगातार
इधर विश्व-बाज़ार में
आलिगन-बद्ध प्रेमी-युगल
अपनी कीर्ति -पताका का व्यवसाय करती विश्व-सुंदरियां
चुश्त आकांक्षाओं के कलशीले उभार
स्त्री का नया अद्भुत रूप
बाज़ार में खेती को उर्वर बनाता
स्वतंत्रता का तनबद्ध उपयोग
पितृ सत्ता का भार खींचती
उसमें देती खाद-पानी
सच यही नहीं मेरे युग का |
सच है बहुत बहुत अलग इससे
जो नहीं दिखता विश्व बाज़ार की
दम्भी और बेहद इकलखोर गलियों में |




Wednesday 8 August 2012

ट्रेन इज रनिंग खटक खटक
अभि इज गोइंग फटक-फटक
ट्रेन इज रनिंग ऑन हिज़ व्हील्स
अभि इज रनिंग ऑन हिज़ हील्स
ट्रेन इज कमिंग एट प्लेटफोर्म
अभि सिटिंग बाई टिकिट-नॉर्म
ट्रेन इज रनिंग खटक खटक
अभि इज गोइंग फटक फटक
केशव जी की कवितायेँ पढ़कर हमेशा खुशी इसलिए होती है कि उनमें हमेशा कुछ ऐसा होता है ,जो अन्यत्र नहीं मिलता |यहाँ तक कि विषय की समरूपता होने पर भी उनकी काव्य-वस्तु अपने तरीके से अपनी एक बेहद तर्क-संगत ,समकालीन, सार्थक और आधारभूत मनुष्यता का कोई पैना और तीखा सवाल उठाती है |असल बात यह है कि उनका कवि उन सवालों से तटस्थ न रहकर उनमें शामिल रहता है ,तभी वह कवि,कलाकार और रचना-कर्म में लगे लोगों से "अपने-अपने रिसालों से बाहर निकलने " की बात करता है |कहन-शैली और मुहावरे में तो उनका केशवत्व झलकता ही है |बड़ी संभावनाएं हैं उनमें | इसके लिए उनके साथ 'अनहद 'को भी बधाई

Tuesday 7 August 2012

निज कक्ष में

चाँद अंधेरी रात का
झांकता रात के तीन बजे
जागता खिड़की बड़ी शीशे की
खुलती -बंद होती
सरकती आगे-पीछे
७अगस्त २०१२
सिडनी महानगर के पेन-शर्स्ट की
नेल्सन स्ट्रीट के १७ नंबर आवास की १०वी यूनिट में
बेचैनी नींद आने का नाम तक नहीं
पेट में प्रदाह
सोने नहीं देता
बदलता करवट कभी बांयी ,कभी दायी
लेटता पेट के बल कभी
चैन नहीं कैसे भी
पीता पानी बार-बार-
उतनी बार टॉयलेट
विचार की प्रक्रिया जन्म लेती दुःख में
कहीं कील सी गड़ती
यही दिखाती रास्ता क़ि
दिशा बदलकर सही दिशा पकडू जीवन की
सुख सुविधाओं के महल
रखते कील-काँटों- बिछी धरा से दूर
आती अनुभवों की खिड़की से रोशनी हमेशा
पीड़ा के खाई-गह्वर होते ऐसे ही
विजय पाना मुश्किल अकेले-अकेले
मात खाते भीम-अर्जुन से महाबली भी
था वैद्य सुख-एन रावण महाप्रतापी की लंका में
पीड़ा के रावन को संहारा संगठन और समझदारी से
यही है आज तक मूल जीवन-गति का
समझ पाया अपनी पीड़ा से
सहयोग-संगठन से चढ़ता घाटियाँ
तोड़ सकता आसमान के तारे
प्रगति का राज व्यक्ति के साथ
उसका संगठन समझ आया
अकेले कुछ नहीं होता
रुदन-हास्य भी जंगल में कौन सुनता
अकेलापन मृत्यु है
अवसाद की सूनी गलियों में भटकता पागल-सा
विक्षिप्त सभ्यता का होता जन्म
पीड़ा मन्त्र-सा फूंकती कान में
यदि हो राह कोई
लोक-जागरण की लहर-सी चलती
पानी ऊंचाइयों तक पहुँच जाता नहर हो तो
नहरें बनाई जीवन की
पेंसिलीन के आविष्कर्ता ने
चरक-सुश्रुत ने ,जीवक ने अपने समय में
बहाती आज तक राहत नदी की
चीन-जापान ,सब जगह यही हुआ
राहें बनी ,चले सभी मिलकर एक साथ
सुखी ज्यादा हुए तो लीकें अलग बनाकर
समाज-गति को भंग किया तोडा बीच में से समाज को
सुख का विभाजन गलत-सलत होने से बढ़ जाती पीड़ा मन की , जीवन की
हो रहा यही आज सुख के महलों से झोंपड़ियों की टक्कर
उजाड़े जा रहे आदिवासी तक उनके अपने वनों और बीहड़ों से
लपलपाती जीभ लोभ-लिप्सा की
रौंदती फसल मानवता की
जिसने बनायी सुगम राहें सभी की
मरे सब के लिए
जिए तो सबके लिए
केवल अपने लिए सोये नहीं निज कक्ष में |




Monday 6 August 2012



पहाड़-सा भारी-कठोर
बीहड़ों-सा दुर्गम
थूहर के जंगल-सा फैला
बाढ़ सा प्रलयंकारी
प्रचंड ज्वाला मुखी -सा भयंकर
असहनीय ताप धमन भट्टी -सा भीतर भीतर
सुलगता एक महा-कुण्ड
बवंडर-भूचाल सा यह समय -----उत्तर-आधुनिक
रीढ़ पर वार करता
सूझता नहीं हाथ को हाथ
राहें विभ्रमकारी पथ-भ्रष्ट करती पग-डंडियाँ अनेक
कहाँ जाऊं ,आँखों पर पट्टी बंधे बैल-सा यह उत्तर आधुनिक समय
विमर्श-जालों में फंसा लहुलुहान हारिल पक्षी -सा
समय को बेचते बधिक मार्ग-दर्शक
बौद्धिक गुलामों का दास युग जैसा
खरीद -फरोख्त की तराजू पर टिके न्याय सा हर घड़ी बिकने को तैयार
दिन-पल-निमिष
एक भयानक-सा दैत्य महाकार रगड़ता मेरा तन-मन
इसके पंजों में छिपा आकर्षण
मुझे धकेलता लगातार इसकी ओर
झूठे और नकली व्यक्तित्वों के गिरोह हर जगह
समय की वल्गाओं को हाथों में थामे
मैं सर झुकाता होता लोट मलोट इसके चरणों में हिम्मतपस्त -सा
मौन धारण करता सही सवालों पर

सुदूर दीप्त-आनन् सा
एक आकर्षण-जाल
पतंगे टपकते-मरते
बरसाती-समय की
रोशनी के व्यूह पर जैसे
अपनी गतियों ,चालों और तरफ्दारियों को बदलता रोज
कैसे समझूं -समझाऊं
नहीं यह हितैषी हमारा कभी रहा
इसके आग्नेयास्त्र नहीं हमारे काम के
इनकी कीमत आत्माओं का सौदा करके चुकाई जा सकती है
इतना सौदा कभी नहीं हुआ आत्माओं का
इन बाज़ारों में रोज बेचने आते आत्माएं धनिक होने की चाह में डूबे
जैसे रोटी के लिए चौराहों पर खड़े मजूर सौदा करते शरीर का
छिपे-छिपे चलता कारोबार आत्माओं का
इस उत्तर-आधुनिक तेजस्वी समय में |

Sunday 5 August 2012

एरोन -रोहन भाई दो
प्रज्ञा के हैं भाई दो |
अपनी बातें करते हैं
हंसते और किलकते हैं
औरों को खूब हंसाते हैं
ऊधम खूब मचाते हैं
दोनों को खिलौने लाई दो |
रोहन हंसता रहता है
अपनी-अपनी कहता है
मम्मी का यह प्यारा है
दादी का दुलारा है
दोनों को मिठाई आई दो |
प्रज्ञा बड़ी सयानी है
कहती उसकी नानी है
बात सभी ने जानी है
जैसे मीठा पानी है
कविता खूब सुनाई दो |