Wednesday 31 July 2013

प्रेम चंद के फटे जूते  -------
"मुझे लगता है तुम किसी सख्त चीज को ठोकर मारते रहे हो । कोई चीज जो परत-पर परत सदियों से जमती गयी है ,उसे शायद तुमने ठोकर मार मार कर अपना जूता फाड़ लिया । कोई टीला जो रास्ते पर खडा हो गया था ,उस पर तुमने अपना जूता आजमाया । तुम उसे बचाकर उसके बगल से भी निकल सकते थे । टीलों से समझौता भी तो हो जाता है । सभी नदियाँ पहाड़ थोड़े ही फोडती हैं ,कोई रास्ता बदलकर घूम कर भी तो निकल जाती हैं ।
तुम समझौता कर नहीं सके । क्या तुम्हारी भी वही कमजोरी थी,जो होरी को ले डूबी , वही 'नेम-धरम ' वाली कमजोरी ? ",नेम-धरम " उसकी भी कमजोरी थी । मगर तुम जिस तरह मुस्करा रहे हो , उससे लगता है कि शायद 'नेम-धरम 'तुम्हारा बंधन नहीं था , तुम्हारी मुक्ति थी । --------------हरि शंकर परसाई

Tuesday 30 July 2013

अलवर के राजा जय सिंह ने अपनी रियासत में १ ९ ० ६ में हिंदी को राज भाषा बना दिया था और उसके विकास के लिए काशी से
आचार्य राम चन्द्र शुक्ल और प्रेम चंद  जी को तत्कालीन राजसी सुविधाओं पर आमंत्रित किया था  । आचार्य शुक्ल आए और एक महीने  से ज्यादा यहाँ के सामंती वातावरण में नहीं रुक सके । प्रेम चंद यह सब पहले से समझते थे अत आए ही नहीं । व्यवस्था के चरित्र की ऐसी परख आज भी अच्छे-अच्छे लेखक को नहीं है ।
प्रतिशोध की भावना से न कभी अच्छी पत्रकारिता हुई है न अच्छा लेखन । जो व्यक्ति बहस के पायदान पर नहीं टिक पाता  वह इसी तरह बगलें झांकता ही नहीं टटोलता भी है । बहस के मोर्चे को बदनामी कराने तक घसीट लाना कुत्ते की लाश को खींचने जैसा है । कुछ ऐसा ही इस पत्रकारिता - प्रसंग से लग रहा है । वाम को ऐसे नहीं मिटाया जा सकता , जो बात जन की आत्मा में बस जाती है वह ऐसे  जुगाडू हथकंडों  से और ज्यादा  मजबूत होती है । जुओं के डर  से कभी घाघरी नहीं फैंकी जाती ।  लोग भी समझते हैं जो नहीं समझने की ठान कर बैठे हैं उनकी चिंता करना  बेकार है । बहरहाल गली के बचकूकर  से हमेशा सावधान रहने की जरूरत  है ।

Monday 29 July 2013

 ---------यह लड़ाई एक ऐसे मोर्चे की लड़ाई है जहां कंधा किसी का है और बन्दूक कोई चला रहा है । अच्छा तो यही होता कि अविनाश जी को अपनी बात उसी समय रखनी चाहिए थी । यह घात लगाकर हमला करना है और किसी दूसरे का मोहरा बनना  है । वह भी ऐसे व्यक्ति का जो पत्रकारिता का दुरूपयोग लोगों को लड़ाने-भिडाने के लिए करता है । हम तो इतना जानते हैं कि मोहन श्रोत्रिय  कोई अलेखक नहीं हैं । उन्होंने भी --क्यों ---पत्रिका भीनमाल जैसी छोटी जगह से आठवें दशक के शुरुआत में निकाली । किसी का मोहरा बनकर लिखना इस पटकथा पर संदेह पैदा करता है । कहानी में कल्पना का प्रयोग खूब किया जता है ।

Sunday 28 July 2013

बहस पोखर पर


वे बहस कर रहे थे
पोखर पर
पर देखा कि
उसकी पाल पर
कुछ कुत्ते पूंछ भी
हिला रहे थे
वहाँ रोटी के
टुकड़े थे जो
किसी को भी
झूठ में शामिल कर सकते थे

रोटी जीवन का
बहुत बड़ा सच है
पर यही है जो झूठ के पहाड़
खडा करा सकती है और
 सच को  नरक कुण्ड  में धकेल सकती है

शब्द उस पहाड़ पर
पाखण्ड की तरह खडा है
जहां शैतान का राज है
पर वह नहीं जानता कि
उसकी तलहटी में
ऐसा जंगल पसरा हुआ है
जिसमें शूल और फूल एक साथ खिलते हैं
और पहाड़ से मोर्चा लेते हैं । 










Saturday 27 July 2013

अज्ञेयवाद  के पैर एक जमाने में नागार्जुन ,केदार , त्रिलोचन और मुक्तिबोध के रचनाकार और प्रगतिशील जनवादी आन्दोलन ने तोड़ दिए थे । उत्तर-आधुनिक माहौल का फायदा उठाकर कुछ लोग उसे फिर जीवित कर अपनी रोटी सेंकना चाहते थे , लेकिन पृथ्वी कभी वीर-विहीन नहीं होती, जिन साथियों  ने मोर्चा सम्भाला , उनको सलाम ।

Friday 26 July 2013

जनतंत्र एक दिन की क्रान्ति नहीं ,बल्कि सतत प्रक्रिया है । फिर किसी भी राजनीतिक प्रणाली का अपना  एक अर्थशास्त्र होता है । राजनीति और अर्थ दोनों सहोदर  हैं । एक दूसरे  के लिए होते हैं और एक दूसरे के बिना ज़िंदा नहीं रह सकते इसलिए जनतंत्र एक आर्थिक प्रक्रिया भी है इसे कभी नहीं भूलना चाहिए । मसलन इस समय जो जनतांत्रिक प्रणाली चल रही है उसका गहरा रिश्ता पूंजीवादी अर्थव्यवस्था से है । जो एक वर्ग विशेष को धनपति बनाने का काम करती है । इसमें अधिकांश  सामाजिक हिस्सा  हाशिये पर पडा रह जाता है । इसीलिये जनतंत्र को समाज की ओर ले चलने के लिए समाजवादी अर्थव्यवस्था की जरूरत होती है । समाज में जब यह जागरण होगा तो जनतंत्र की प्रक्रिया और तेज हो जायगी । अभी हमारे देश में तो वह समाज के साथ बचपन का खेल ,खेल रही है । जैसी समाज की संरचनाऔर मनोरचना  है वैसी ही हमारी सामजिक जनतांत्रिक प्रणाली भी है ।जागरण, नवजागरण और जनांदोलनों की सतत  प्रक्रिया से जनतंत्र में गुणात्मक परिवर्तन होता चलता है । 
भूख का पता उसी को चलता है , जिसको लगती है । राज प्रासादों में बैठे लोगों की परम्परा रही है कि वे भूखे लोगों को ब्रैड की जगह केक खाने की सलाह देते रहे हैं । हमारा समय कितना बदला है हम जान सकते हैं ।

Thursday 25 July 2013

मानवता की आत्मा एक होती है । हिन्दू-मुसलमान  उसको हम बनाते हैं अपने अमानवीय फायदों के लिए । फूलों की माला की तरह एक ही सूत्र है जो पूरी विश्व मानवता के भीतर से होकर गया है ।

Tuesday 23 July 2013

शोषण, व्यक्ति और उससे जुडी व्यवस्था किया करती है आपस में कला -विधाएं एक दूसरे का सहयोग करती हैं । शोषक वर्ग की भाषा और साहित्य में सचाई को छुपाने की कोशिशें लगातार की जाती रही हैं । वे व्यक्ति की बात ज्यादा करते हैं । समाज की भी करेंगे तो बहुत अमूर्त ढंग से । दोनों के बीच कोई द्वंद्वात्मक रिश्ता भी होता है वे नहीं बतलाते ।
बदलाव  एक सतत संघर्षशील प्रक्रिया होती है । हम अनेक अंतर्विरोधों के साथ अपना जीवन निर्वाह करते हैं और कोशिश करते हैं कि वे कम से कम हों । लेकिन आदमी अपने स्वभाव को आसानी से नहीं बदल पाता । यही तो उसका मनुजत्त्व के भीतर का पशुत्त्व है , जिससे वह संघर्ष नहीं करता । आज़ादी की लड़ाई जिस उद्देश्य से भगत सिंह लड़ रहे थे , उस उदात्त ढंग और उद्देश्य के साथ सभी तो नहीं लड़ रहे थे । उस समय भी आपसी मतभेद खूब हुआ करते थे । इसलिए यथार्थ और प्रक्रिया दोनों को मिलाकर देखना चाहिए , निराशा कम होगी । हमारा जाति -सम्प्रदायवाद खूब नीचे तक पहुच गया है ,यह सच है लेकिन उससे एक स्तर पर हल्की ही सही , मुठभेड़ भी जारी है ।
मध्यकाल में  जाति -बिरादरी हमारे संबंधों का निर्धारण करती थी और वर्ण-व्यवस्थावादी संरचना को केंद्र में रखकर एक निश्चित विचारधारा में  चीजों को समेटती थी । आज भी ऐसा है किन्तु पहले में और आज बहुत फर्क आ गया है । आज जाति -सम्प्रदाय की संकीर्णताओं का विरोध करने वाले और उस पर किंचित आचरण करने वाले लोग भी हैं । आचार्य रामचंद्र शुक्ल तक ने अपने हिंदी साहित्य के इतिहास में लेखकों की बिरादरी बतलाई है किन्तु अब उनकी इस बात पर ध्यान नहीं दिया जाता । चीजें सदा एक सी नहीं रहती , वे रहते हुए बदलती भी तो हैं । अब देखना यह है कि हम किसके साथ हैं । केवल संवेदना है और वस्तुगत जीवन दृष्टि लेखक के पास नहीं है तो दिशा भ्रष्ट होने का ख़तरा रहता है ।

Monday 22 July 2013

जैसे जैसे किताब पढ़ रहा हूँ तो जैसे छोटी छोटी जिंदगियों की परतें खुलती चली जा रही हैं । कितने ही ऐसे चरित्र सामने आ रहे हैं जिनकी सदाशयता, उच्चाशयता और नैतिक बोध की हम अनदेखी करते हैं , भारद्वाज जी की तीसरी आँख ने उनको आसानी से न केवल पकड़ लिया है वरन उसको अपने सहज अंदाज  में व्यक्त भी कर दिया है । भाषा में उर्दू की छोंक पूरे प्रकरण  को गंधवान बना देती है । बहरहाल , एक विश्वसनीय पृष्ठ मेरी जिन्दगी का हिस्सा बन रहा है । आपकी मेहनत  खूब रंग लाई है है ।इसके लिए बधाई अन्यथा भारद्वाज जी किसको हाथ धरने दे सकते थे ।

Sunday 21 July 2013

अक्सर हिंदी प्रेमियों में हिंदी के लिए एक ललक और आतुरता रहती है । जो स्वाभाविक और जरूरी है । हम अपनी जन-भाषा और जातीय भाषा को आदर और प्यार नहीं करेंगे तो वे लोग कहाँ से आयेंगे जो यह करेंगे । रहा अंगरेजी के सामने कई जीवन-क्षेत्रों में हिंदी के पिछड़ जाने का सवाल , तो ऐसा अकेले हिंदी के साथ ही नहीं ,दुनिया की उन सभी  भाषाओं के साथ हुआ है जो उपनिवेशवाद का शिकार रही हैं  । हमारे देश की सभी भाषाओं का हाल यही है । इसका कारण है वह औपनिवेशिक युग जिसमें हमारे देश की सभी भाषाएँ  पीछे धकेल दी गयी । साहित्य में तो वे अपने संघर्षों के साथ आगे बढी  किन्तु विज्ञान और समाज-विज्ञान की दुनिया में फिसड्डी  रखी  गयी ।हमारे देशी शासक वर्ग ने भी तोते की तरह औपनिवेशिक शासन की भाषा सीखने में ही अपनी भलाई समझी । बेहतरीन तरीके की गुलामी वे अपने मालिक की  भाषा में ही कर सकते थे ।  हमारे हिंदी समाजशास्त्रियों , हिंदी वैज्ञानिकों और हिंदी राज नेताओं , नौकरशाहों और उद्योग -उपक्रमों की अंग्रेज एवं अंगरेजी परस्ती की वजह से भी  ऐसा हुआ । भारतीय समाज में वैज्ञानिक स्वभाव को विकसित न कर पाने की वजह से भी ऐसा हुआ । भाग्यवाद ने कर्मवाद को दबाए रखा । आज भी हालात बहुत  बदले नहीं हैं । टी .वी चेनलों  पर जिस तरह भाग्यवाद की  घुट्टी  पिलाई जा रही है उसमें यह कैसे संभव है कि हम हिंदी को अपने मौलिक और जमीनी सोच से समृद्ध बना सकते हैं । अब तो अंगरेजी के साथ हिंदी भी बनी रहे ,यही गनीमत है । यद्यपि   सामान्य   जन की  ताकत से वह आगे बढी  है , आगे भी उसी के बल पर आगे बढ़ेगी ।
आज की सुबह अलग तरह की रही , जिसे रचनात्मक सुबह कह  सकता हूँ । हमारे आदरणीय भाई और वनस्पति विज्ञान के प्रोफेसर श्री प्राण नाथ भारद्वाज की संस्मरणात्मक आत्मकथा या आत्मकथात्मक संस्मरणों की एक कृति ----"बात तुम्हारी चली " -----शीर्षक से  प्रकाशित पुस्तक को जयपुर से आदरणीय  भाई मोहन श्रोत्रिय अलवर लेकर आये । इस कृति को किस विधा में रखा जाय ,यह वैसा ही है जैसे प्रसिद्ध  दागिस्तानी साहित्यकार रसूल हमजातोव के ---मेरा दागिस्तान--- की विधा के बारे में । जहां सब कुछ इतना घुलामिला है कि एक साथ कितनी ही विधाओं का आस्वादन इसकी पठन -यात्रा में हुए बिना नहीं रहता । ख़ास बात यह कि इसके भीतर से लगातार एक बेहतरीन और शानदार इंसान हमारे साथ रहता है और वह भी पूरे संकोच तथा निस्पृहता के साथ । यह गुण अच्छे -अच्छे ख्यात रचनाकारों में दुर्लभ है । इसके गद्य में जो गंगानगरी  पंजाबीपन है वह इसकी सुगंध को और बढ़ा देता है । बहरहाल ,एक अच्छे मनुष्य की आपबीती से यहाँ जगबीती का जो अनुभव होता है वह आज के आपाधापी के जमाने में लगभग दुर्लभ है ।
       एक तरह का घरेलू लोकार्पण चार मित्रों औरआदरणीया भाभी जी की उपस्थिति में हुआ । लेखक को उसकी पहली प्रति उनके चार साथीमित्रों और अनुजों ने उनको भेंट की ।

Friday 19 July 2013

पद्मजा जी आपके सवालों के जबाव ---------क्रम से -----
पहला सवाल -------खासतौर से जीवन-तत्त्व को । साहित्य में यदि अपना समय और जीवन की व्यापकता और गहराई नहीं है तो वह व्यक्ति के लिए निजी लाभ , पुरस्कार , सम्मान पाते रहने का जुगाड़ हो सकता है , सच्चा जन-साहित्य नहीं । लेखक की जीवन-दृष्टि का सवाल भी महत्त्वपूर्ण होता है और हमारे जैसे देश के साहित्य में परम्परा -बोध भी । समकालीनता अपनी परम्परा के क्रम-विकास में नहीं है तो वह सामयिकता हो सकती है , समकालीनता नहीं । समकालीनता के साथ रचनाकार की भविष्य- धारणा भी जुडी रहती है । इस रूप में उसका रिश्ता तीनों कालों से जुड़ जाता है । त्रिकालदर्शी होने पर ही कालजयी साहित्य रचा जाता है । दूसरे , साहित्य का अपना कला-शिल्प भी , जो उसे स्वायत्त बनाता है ।
दूसरा सवाल------अच्छा मनुष्य होना । निर्वैयक्तिक वैयक्तिकता से सम्पन्न होना और रचनाकार से ज्यादा अपने समय और जीवन को जानने की कोशिश करना । विश्व-दृष्टि सम्पन्न होना और अच्छे गद्य की पहचान होना ।
लोक ,समूह का प्रतिनिधित्त्व करता है जबकि जन , व्यक्ति का । दोनों एक दूसरे  के पूरक हैं और जब दोनों में द्वंद्वात्मक रिश्ता बन जाता है तो समाज में गति एवं परिवर्तन की प्रक्रिया तेज होने लगती है । उत्तर-आधुनिकतावाद यह नहीं मानता उसका विश्वास विखंडन में है । आधुनिकतावादी और उत्तर-आधुनिकतावादी दोनों ही व्यक्ति पर बल देते हैं ,जन-समूह यानी लोक पर नहीं । मार्क्सवाद दोनों के द्वंद्वात्मक रिश्ते को मानकर चलता है । वह एकांगी दर्शन नहीं है ।
लोक से मेरा मतलब उस जन-समूह से है जो गाँव-शहरमें सर्वत्र है । जो श्रम करके अपनी जीवन नौका को खेता है । कोई तिकड़म ,जुगाड़ और ऐसी रणनीति नहीं भिडाता जो आदमी को इंसानियत से च्युत कर दे । इस काम में जो और जितना मध्य-वर्ग शामिल है वह भी उसी जन-समूह(लोक) का हिस्सा है बशर्ते कि वह तय कर ले कि वह किस ओर है ? दो नौकाओं में सवारी करने वाले मध्य वर्ग का चरित्र उसे कहाँ बिठाता है यह आप स्वयं जानते हैं ।
शब्द-यात्रा

मंजिल तक
पंहुचते हैं उतनी
करते है शब्द ,
जीवन-यात्रा जितनी

यात्राएं कभी पूरी नहीं होती
अधूरी यात्राओं से जन्म लेती हैं
अधूरी  कवितायेँ

वे शब्द
उसी खेत की मैंड पर मिलेंगे
जहां किसान हल जोत रहा है
पानी के बीच खडा
धान की पौध रोप रहा है

बंद कमरों में
शब्दों की कोठरी की गंध
सीलन भरी है
वहाँ से छान-झोंपड़े
नज़र नहीं आते

सकर्मक शब्द
सडक बुहारने वाली
उस सुन्दरी के पास मिलेंगे
जिसकी जिन्दगी में
आज भी झाडू के संग
उसके ढकोले में
कूडा -करकट एकत्र है

कविता के शब्द
कभी राज-प्रासादों और सत्ता -केन्द्रों में
ढूंढें नहीं मिलते
महाकवियों ने उनको
वनवासों ,जंगलों
पहाड़ों, सरिताओं और
कच्ची बस्तियों में खोजा
उन महायुद्धों में
जो चलते रहे
अमीर शैतानों और गरीब इंसानों के बीच

नदी पार उतारने वाली नौका में
पहले जैसी इतिहास-गति है
युद्ध अभी ख़त्म नहीं हुआ
इसीलिये कवि खोज रहा है
निरंतर
जीवन-तत्त्वों से भरे
नए-नए सकर्मक शब्द ।







































 मेरी यह मान्यता पहले  है कि  हिंदी की सृजनात्मक  काव्य-परम्परा में लोक को आदिकाल से पहले स्थान पर रखा गया है । पूरा भक्ति-काव्य इसी वजह से महत्त्वपूर्ण और आज तक प्रासंगिक है ।अज्ञेय से प्रभावित आधुनिकतावादी  कवियों में उससे विच्युति है और इनसे ज्यादा सार्थक कविता नागार्जुन, केदार, त्रिलोचन ने की है । उनको इसी विशेषता के कारण उस समय हाशिये पर धकेल दिया गया था । समझौता ऐसी आंतरिक तकनीक है  , जो  सत्ताकेंद्रों के नज़दीक , भीतरी सूत्र की तरह जोड़े रखती  है, बाहर नजर नहीं आती  । यह मध्यवर्गीय बीमारी है , जो अब पहले से ज्यादा बढ़ गयी है । किसी बात को समझते हुए भी अनदेखी करना और चुप्पी खींचना कहीं न कहीं इसी कोटि में आता है । एक समय आधुनिकतावाद यह काम कर रहा था आज यही काम उत्तर-आधुनिकतावाद कर रहा है । लोक हमसे दूर अपनी जगह पर कायम है । सच्चा  कवि हमेशा उसी की तलाश में रहता  है और  उपेक्षा -उपेक्षा की तोता-रटंत से दूर अपना काम करता रहता है । 

Sunday 14 July 2013

राष्ट्रवाद

जो जीवन भर
विभाजित और सूखी नदी को
और शूलों छिदी लहूलुहान  धरती को
राष्ट्र की विचारधारा में लपेटे रहे  

वहाँ हमेशा
मरे चूहे की तरह
आत्मा का वीभत्स उल्लास
और कारोबारी अजगरों के दांत
जीवन-तत्व पर गड़े होते

उनके हाथ से रोपे  गए 
पेड़ों में हमेशा विषफल ही लगते
कभी वे आदमी की तरह
आदमी के चेहरे को नहीं देख पाए

उनके मुख से
प्रदूषित चिमनियों का धुंआ निकलता
जैसे ओले हरी फसल  का
कर देते हैं विनाश

उनके पास आग से भरी
अंगीठी है जो
बस्तियों को  क्षण भर में
ख़ाक कर सकती है
जैसे उनके पास डर  का कोड़ा है
जिसे वे पीठ के पीछे रखते हैं

उनके द्वारा बनाए जा रहे
नरक-कुण्ड के चारों ओर
इंद्र की अप्सराएं जाल बिछा रही हैं
पर वह
इतनी आसानी से
आत्माओं को फंसाने में
कामयाब नहीं होगा
समझ लेना ।





Friday 12 July 2013

अनेक भाषाएँ सीखना -जानना व्यक्तित्व को समृद्ध करना है किन्तु यह सब  यदि मातृभाषा  और जन-भाषा की कीमत पर किया जाता है तो गंभीर चिंता का विषय है । मौलिक सोच,आज़ाद -ख़याल और सृजनात्मक समृद्धि के लिए जरूरी है मातृभाषाओं में शिक्षण । अंगरेजी शासन काल में उन्होंने हमको अपनी भाषा से भी गुलाम बनाया था । यह अलग बात है कि उसी ज्ञान के मार्फ़त उस समय के अनेक लोग स्वाधीनता और समानता जैसे जीवन- मूल्यों के लिए लड़े । तभी तो कहा गया------निज भाषा उन्नति अहै , सब उन्नति कौ मूल ।




 ।

Thursday 11 July 2013

विकास


मैंने नीम को
धूजते -कांपते
थरथराते देखा
वह एक विकास -पथ पर
थोड़ी देर पहले
लहलाहा रहा था

मैंने बया को
मारे-मारे भटकते देखा
वह अपने नीड़  के लिए
बरसात में
एकांत बबूल की तलाश में थी
यहाँ भी विकास की
एक सड़क जैसी काली रेखा पर
चमचमाती कारों का काफिला था

एक अफसर को देखा
जो करोड़ों से संतुष्ट नहीं था
वामनावतार की तरह
पूरी धरती को अपने एक पैंड से
नाप लेना चाहता था
वह बहुत गुस्से में था
कि ये क़ानून का तमाशा
कब ख़त्म होगा


एक नेता देखा
जिसके सामने सुल्ताना डाकू
बहुत सदय और अपनी बात पर
मर-मिट जाने वाला लगा


मैंने लोकतंत्र देखा
जहां लोक की लाश
ठीक चौराहे पर पडी हुई थी
और तंत्र अपनी ढपली बजाने में
मग्न था

 ऐसी रोशनी देखी
जिससे अन्धेरा
सुकूनदेह और ईमानदार
लगता था

फूल फिर भी
जहां खिले दिख जाते थे
देखने की दिशा
बदल जाती थी ।

Tuesday 9 July 2013

पहली बारिश


कल यहाँ
बारिश का पांखी
इतना उड़ा
जैसे आसमान हँस -हँस  कर
धरती से दिल खोल कर
बात कर रहा है

सभी दिशाएं खेतों से
कानाबाती करती
नीम-तरुओं की
शाखाओं पर
झूले डाल
पींग मचकाती
झोटे पर झोटे
खाने लगी


पहली बारिश का पांखी
जब उड़ान भरता है
तो निचले पहाड़ों पर
धीरे-धीरे उतरता पानी
रोशनी की तरह
दिखाई देता है

इस रोशनी ने
आज अलवर के बाजार में
हम दोनों को
तरबतर कर दिया ।