Tuesday 31 December 2013

नए साल में करता हूँ मैं
सबकी मंगलकामना ।

खिलते फूलों -सी हर घर की बगिया हो ।
फागुन के आँगन -सा मन रंगरसिया हो । ।
एक अकेला ही ना हो,मालिक वैभव का ,
हर पेड़ जगत में , चन्दन -वन का बसिया हो । ।
सबको सब कुछ मिले, तभी कुछ जानना
नए साल में करता हूँ मैं
सबकी मंगलकामना

सीढ़ीनुमा जिंदगी से सबका पीछा छूटे
बंधन और पाश की दुनिया से सबका नाता टूटे
सब स्वाधीन,  स्वतंत्र ,सभी के पूरे हों सपने
कोई एक कभी दुनिया को ,डाकू-सा बन ना लूटे
वह भी दिन आयेगा जब ,
ना हो जन की अवमानना ।
नए साल में करता हूँ मैं
सबकी मंगलकामना
 नूतनता के आँगन में
धूप  की अठखेलियां हों
जैसे इन दिनों
खिल रहा गैंदा
गुलदाउदी
खिले जीवन
सभी का ।
जब मधुमास आये
और हाड कंपाती ठण्ड से
पीछा छूटे ।

जब सबको मिले
वैसा सुख जो अभी
मिलता है
कुछ सागरों -सरोवरों को ।
रेगिस्तान भी हो रससिक्त
खिले हों अनगिनत मरूद्यान
जीवन में । 
नव गति, नव लय, ताल छंद नव
नवल कंठ, नव जल्द मन्द्र रव
नव नभ के नव विहग वृंद को,नव पर नव स्वर दे ।
नव वर्ष २०१४ के लिए  महाप्राण निराला की उक्त काव्योक्तियों  के अनुरूप नवता की कामना के साथ ।

Wednesday 25 December 2013

 भाषा-माध्यम आदि के सम्बन्ध में अनेक तरह के विचार और तर्क-वितर्क  चलते रहते हैं । मेरी समझ में माध्यम जितने भी हैं , दुधारे का काम करते हैं । माध्यम  में मध्यस्थता रहती है जो किसी को जोड़ने का काम कर सकती है और तोड़ने का भी । जब तक सत्ता चरित्र वर्गीय है तब तक सत्ता -पतियों   के हाथों में  सत्ता-भाषा  की लगाम भी रहती है ।किसी भी माध्यम में 'मध्य' की भूमिका होती है । यही हाल मध्य वर्ग का भी रहता है ,वह सत्ताधीश उच्चवर्ग का सहायक भी हो सकता है और विरोधी भी ।इसलिए भाषा-माध्यम के बारे में कहा जा सकता है कि  भाषा को निर्मित करने वाले समाज की जैसी मानसिकता और कर्म होता है  , भाषा वही रूप ले लेती है  ।
घनघोर अंधेरी रात में,
जब न चांद होता है
न सूरज,
तब दिशा का पता
छोटे-छोटे
चमकते सितारे
देते हैं ।
खुशी की बात है कि  कविता,साहित्य , आलोचना और  कला  के कारकों में लोक-तत्त्व का विस्तार हो रहा है । यह  आज की कलात्मकता  का जरूरी हिस्सा है । यही  लोक-तत्त्व हमारे दैनिक जीवन - व्यवहार का  अंग जब बन जायगा तो मूल धारा की तरह बहने लगेगा । लोक तत्त्व कई जगह फैशन की तरह भी आता है ,जीवन में नहीं होता ।सादगी और साधारणता इसकी प्रकृति का निर्माण करते हैं ।  लोक-तत्त्व की जमीन  हमारे उस लोक-जीवन में है जो किसान-मजदूर की सहज जिंदगी के स्रोतों से उद्भूत होता है ।अब यह रोजगार के दबाव से अपनी जमीन से विस्थापित होकर शहरी रूप भी ले  रहा है ।यह सच है कि   पूरी दुनिया का सञ्चालन श्रम और उससे नाभिनाल-बद्ध शक्तियां ही करती हैं इस वजह से हर युग का बड़ा और कालबद्ध साहित्य इन श्रम -शक्तियों को अपना आधार बनाता है ।

Tuesday 24 December 2013

ईसा मसीह पड़ौसी से प्रेम करने का सन्देश लगातार देते रहे और उस पर आचरण करके प्रमाण भी प्रस्तुत करते रहे । उनके लिए पड़ौसी का मतलब था कि जो भी आपके आसपास  दुखी है उसके काम आना । दरिद्रता से बड़ा दुःख शायद ही कोई दूसरा हो । आज के युग की  विडम्बना है कि नवउदारवादी आर्थिक नीतियों से कॉर्पोरेट सेकटर को खुली छूट मिलती जा रही है ,जिससे गरीबी और अमीरी के बीच की खाई और चौड़ी होती जा रही है । इस सबसे बड़े दुःख से लड़ने  और उसे दूर करने का जो रास्ता हो सकता है , वही ईसा के अनुसार पड़ौसी से प्रेम की श्रेणी में आ सकता है  ।आज उनका शुभ जन्म दिन है ,उनकी स्मृति को प्रणाम और मैरी क्रिसमस । 
नैतिकता का
शिरीष-वन
तभी महकता है
जब उसमें
आचरण के फूल
खिलते हैं ।
सादगी से अन्य सारे  मूल्य अपने आप आने लगते हैं ।महात्मा  बुद्ध,तीर्थंकर महावीर, प्रभु ईसा ,पैगम्बर मुहम्मद ,गुरु नानक ,महान चिंतक कार्ल  मार्क्स ,महात्मा गांधी आदि  ने अपनी सादगी से लोगों का दिल जीत लिया था । जो दिल नहीं जीत सकता वह सार्वजनिक जीवन में आम जन को धोखा देने के लिए और उसे ठगने के लिए आता है । सादगी में जीवन को सबसे कम खतरा रहता है ।जो सामंती तामझाम से लदा -फदा  रहता है वह जन-नेता कैसे हो सकता है ? 

Monday 23 December 2013

अब  यह तो नहीं कहा जा सकता  कि केजरीवाल मैदान छोड़कर भाग गया ।  केजरी के दोनों हाथों में लड्डू हैं । ऐसा तो पहले भी खूब हुआ है , जब अल्पमत सरकारें बनी हैं और गिरी हैं ।गिरना-उठना समुद्र की तरंगों की तरह चलता रहता है ।  यह प्रक्रिया कभी रुकी नहीं । इतिहास का  गति  -मार्ग अवरोधों को पार करता हुआ चलता है ।जो व्यक्ति अभिमन्यु की तरह चक्रव्यूह में घिरा हो , किन्तु अश्वमेध के घोड़े की वल्गा जिसने पकड़ ली हो ,उसकी गति क्या हो सकती है , इसका अनुमान पहले से ही लगाया जा सकता है । आज के राजनीतिक  माहौल में जाति -मजहब से अलग दिखकर काम करना भी  नैतिकता की हल्की-सी गंध फैलाने जैसा है । 

Sunday 22 December 2013

क़ानून, समाज में परिवर्तन के लिए होता है और  वह एक दण्ड -नीति  की तरह काम करता है । उससे समाज की सामूहिक मानसिकता अपने आप नहीं बदलती ।उसे बदलने के लिए सामूहिक प्रयत्न करना पड़ता है ।  सख्त से सख्त क़ानून की गिरफ्त से ताकतवर लोग और वर्ग साफ़ बच निकलते हैं । इसलिए वर्ग-चेतना और संगठनबद्धता की जरूरत  रहती है ।
दिल्ली में आप---का रास्ता साफ़ होता दिख रहा है । संस्कृत में एक कहावत चलती है कि "  जहां पेड़ नहीं होते वहाँ एरण्ड (अंडोरा का पेड़) का पेड़ ही --पेड़ कहलाता है ।"एरण्डोपि द्रुमायते"--- "भूख में किवाड़ भी पापड़ हो जाते हैं । " इस आधार पर जैसा भी और जितने दिन का भी  विकल्प मिलता है तो लोग बेझिझक उसे ही स्वीकार कर लेते हैं ।कोई रास्ता भी तो नहीं । उसके  कसौटी पर खरा न उतरने पर जनता  उसे भी उल्टी पटकनी देती  हैं । फिर यदि जनता या जनमत  ही  असली ताकत  हैं तो यह काम भी जनमत ने ही तो किया है कि सर्वाधिक मत पाने वाली पार्टी को सरकार बनाने की हिम्मत नहीं है और एक अल्पमत जनादेश को सरकार बनाने के लिए कहा  जा रहा है ।विकल्पहीनता के जंगल से होकर विकल्प की पगडंडियां दिखाई देने लगती हैं बशर्ते कि राजनीतिक चेतना का चंद्रोदय होता रहे । फिर हम यह तो जानते ही हैं कि इस समय लगभग पूरी दुनिया बुर्जुआ लोकतंत्र की सीढ़ियों पर बैठी हुई है और नवउदारवादी आर्थिक नीतियों की गिरफ्त में है ।    

Friday 20 December 2013

ऐसा  प्रतीत होता है कि " आप" दिल्ली में सरकार बनाने जा रही है और अल्पमत जनादेश का सम्मान करने जा रही है । तुरत-फुरत सरकार  न बनाने की  उनकी हिचक का सबसे बड़ा कारण , जो मुझे  लगता है ,वह  दिल्ली के मतदाता से किया "आप"  का  यह वायदा भी रहा   , कि 'वे अपने किसी भी विरोधी दल से न सहयोग लेंगे और न सहयोग करेंगे ।' जैसा भाजपा वाले आज उनको यह कहकर अपनी राह  बताने में लगे हुए हैं कि ये तो कांग्रेस से भीतर ही भीतर मिले  हुए थे । सक्रिय  और नैतिक दिखने और प्रतीत होने वाले का दोनों तरह से मरण होता है । अनैतिकता, व्यक्ति को कुछ भी करा सकती है । अवसरवाद , अनैतिकता की पहली सीढ़ी  होता  है ।इस अवसरवाद को वे अपनाना नहीं चाहते थे । इस वजह से  फिर से वे  मतदाता के पास गए ।उनके लिए यह नीतिगत प्रश्न था , कोई प्रशासनिक नियम नहीं । नियम और नीति में फर्क होता है ।  भविष्य अब जो भी होगा , देखा जायगा । पर इससे सत्ता की निरंकुश प्रवृत्ति को फिलहाल अंकुश लगा है ।अन्यथा  पुरानी  परिस्थितियों में भाजपा ही दिल्ली में सरकार बनाती ।नयी परिस्थिति  सापेक्षिक  नैतिकता की देन  है । यद्यपि बुर्जुआ  सिस्टम में  नैतिकता की आयु ज्यादा नहीं हुआ करती , किन्तु सुंदरता  कितनी भी अल्प और सीमित क्यों न  हो , आनददायिनी होती है । महान कवि तुलसी  कहते हैं ----जो अति आतप व्याकुल होई । तरुछाया सुख जानइ सोई । 
किसी नए दल की सांप-छछूदर जैसी गत बनाना ठीक नहीं । जुम्मे-जुम्मे जिसे कुछ  महीने  हुए हैं यदि वह फूंक-फूंक कर कदम रख रही है तो जल्दबाज़ी ठीक नहीं । जहां बहुमत से बहुत ज्यादा जनादेश प्राप्त हुआ है वहाँ भी मंत्रिमंडल बनाने में बारह दिन लग गए हैं । जहाँ स्पष्ट जनादेश नहीं है और समर्थन भी वह पार्टी कर रही  है , जिसके विरोध में सरेआम रहकर २८ सीटें हासिल की हैं , वहाँ अभिमन्यु की तरह चक्रव्यूह में फंसाना उचित नहीं कहा जा सकता । आलोचकों को सिर्फ आलोचना करने का काम रहता है , कुछ करना तो होता नहीं । जिसको करना होता है , वही जानता है । दूसरे , एक अनैतिक माहौल में सत्ता की जोड़-तोड़ जहां चलती आयी हो, वहाँ सावधानी बहुत जरूरी है । सावधानी हटी , दुर्घटना घटी ।

Thursday 19 December 2013

कविता,कवि के अंतर्जगत का समयसिद्ध , भावबद्ध और  उदात्त  आख्यान है जो उसके  बहिर्जगत के द्वंद्वों व टकराहटों के बिना बहुत कमजोर और अपठनीय रहता है । कवि का अंतर्जगत उसके बहिर्जगत की जितनी व्यापकता में होगा,  उतना ही वह दीर्घजीवी और कालजयी  हो सकेगा ।
इन दिनों कविवर निलय उपाध्याय अपनी गंगा तट की यात्रा पर हैं और अपने सभी तरह की यात्रा अनुभव लिख रहे हैं । इनमें एक अनुभव कानपुर की बीस अंगरेजी स्पॅलिंगों को लेकर है कि वे किस तरह काल के अनुसार समय समय पर बदलती रही । ऐसा केवल कानपुर के साथ ही नहीं है । औपनिवेशिक काल में सत्ताधारी अँगरेज़ शासकों ने अपने उच्चारण के अनुसार हमारे देश के स्थान और नामवाची  संज्ञाओं के साथ ऐसा ही सलूक किया । देहली को उन्होंने ही"डेल्ही" बनाया जो स्वाधीनता मिलने के बावजूद   सही नहीं हुआ है । कोलकाता , मुम्बई और चेन्नई सब अपनी भाषा की संज्ञाएं बन चुकी हैं , जो उन प्रदेशों की जनता की  जातीय चेतना की सूचक हैं ।  किन्तु हिंदी प्रदेश की" दिल्ली" के साथ ऐसा नहीं । इसी से लगता है कि हिंदी -प्रदेशों की जनता में अपनी भाषा के प्रति " जातीय चेतना " की कितनी कमी है ?हमारे अलवर के साथ भी ऐसा हुआ था । अंगरेजी सत्ता के अधीन जब अलवर एक देशी रियासत था , तब उसकी स्पैलिंग अंगरेजी के यू से शुरू होती थी , जिसकी वजह से दिल्ली दरबार में अंगरेजी के अकारादि क्रम  से अलवर के राजा जय सिंह की कुर्सी आखिर में लगती थी । इसको  उन्होंने  अपना अपमान समझ कर पहला काम यही किया कि अलवर की स्पेलिंग बदली और उसे अंगरेजी के ए से शुरू कराया और उनकी कुर्सी सबसे पहले लगने लगी । इतना ही नहीं उन्होंने १९०८ में ही अपने राज्य की राजभाषा अंगरेजी के स्थान पर हिंदी/उर्दू  को कर दिया तथा राजसेवकों को उसे सीखना लाजमी कर दिया । जनता तो हिंदी और उसकी बोलियों में बोलती ही थी । 
 

Wednesday 18 December 2013

भाव और बोध के बीच एक रिश्ता बनता है किन्तु जब भाव की भूमिका भावोत्तेजना फैलाने में बदल जाती है तो तार्किकता उसका साथ छोड़ जाती है ,जिसके भयंकर और अपूरणीय दुष्परिणाम निकलते हैं । भावोत्तेजना आसानी से अफवाह के रूप में फैलाई जाती है जब कि तार्किकता निजी अध्यवसाय के बिना  नहीं आती । तार्किकता के लिए व्यक्ति को खुद से और उस समाज की कुप्रथाओं से लड़ना पड़ता है जो भावोत्तेजना के माहौल में पलता  और बड़ा होता है ।

Tuesday 17 December 2013

पिछले बीस-पच्चीस सालों से गैर सरकारी संगठनों की सामाजिक-शैक्षिक भूमिका पूरे देश में  बहुत बढ़ गयी है जो देशी-विदेशी फंड लेकर समाज को 'बदलने' और उसे'सुधारने' की भूमिका में देखे जा सकते हैं ।इसमें बिना मेहनत के  अर्जित किया धन शामिल रहता है जो सारी चारित्रिक और अनैतिकता सम्बन्धी बीमारियों की जड़ होता है । इसलिए  गैर सरकारी संगठनों को जांच के दायरे में लाना उतना ही जरूरी है जितना सरकारी संस्थानों को । भ्रष्टाचार चौतरफा होता है । देखा जाय तो निजी तंत्र ही भ्रष्टाचार की अंदरूनी सुरंगों से इस बीमारी को फैलाता और बढ़ाता है । वह पैसे की मार्फ़त लॉबीइंग करता है और गरीब के हक़ में जाती हुई चीजों को अपने हक़ में कर लेता है ।अतिरिक्त और बिना पसीना बहाए संचित किये जाने वाले धन और घूस की प्रकृति एक  जैसी होती है । सरकारी और गैर सरकारी में  इस मामले में कोई फर्क नहीं होता । गैर सरकारी संगठनों को यदि लोकपाल बिल से बाहर रखा  गया है तो यह एक पतली गली भ्रष्टाचार को पनपते रहने के लिए छोड़ दी गयी है ।तभी तो कहा गया है कि "  बहुत कठिन है डगर पनघट की ।"  
दिल्ली में जैसी भी परिस्थितियां हैं , समय का तक़ाज़ा यह है कि 'आप' पार्टी को सरकार बनाकर एक वैकल्पिक उदाहरण भी प्रस्तुत करना चाहिए । कुछ निर्णय ऐसे करने चाहिए जो उदाहरण बन सकें  और जनतंत्र की एक नयी मिसाल कायम कर सकें ।इस काम को करने में  कुछ समय केजरीवाल लेते हैं और एक दूसरी तरह की परम्परा डालते हैं तो इसे होने देने में क्या हर्ज़  है ?  'आप' पार्टी ने  सभी राजनीतिक दलों की चुनौती को स्वीकार कर  बड़ा काम यह कर ही दिया है कि  सभी को  आईना  दिखला दिया है । और वे भी फूंक फूंक कर कदम रखने को मजबूर हुए हैं ।अन्यथा जैसा भी लोकपाल बिल है , अब भी अधर में लटका रहता ।  किसी बच्चे से अनुभवी और खुर्राट बूढ़ों जैसी अपेक्षा करना किसी भी तरह उचित नहीं कहा जा सकता । यह  अपने जाल में फंसाने जैसा है ।  अलग तरह से चलने की हिम्मत करना, एक भ्रष्ट हो चुके तंत्र में वैसे ही बहुत मुश्किल होता है ।  एक जैसी राह पर चलना आसान होता है पर जब राह कुछ अलग तरह की हो तो कठिनाई आती ही है । इस मामले में बेसब्री ठीक नहीं ।

Monday 16 December 2013

मिथक-निर्माण करना  पूरी प्राचीन  दुनिया की कल्पनाशीलता का प्रमाण है । उसे  आज का जन-मानस  भी बेसहारेपन  की स्थिति में अपना सहारा बनाकर पाथेय की तरह साथ लिए चलता है । कोई जगह ऐसी नहीं , जो मिथकों से सम्पृक्त न  हो ।  मिथक हमारे भीतर की आश्चर्य-भावना को गुदगुदाते हुए हमको रससिक्त बनाने का काम करते हैं इसलिए वे कभी हमारा पीछा नहीं छोड़ते ।
सोलह  दिसंबर

स्त्री के आकाश में
आज भी शून्य पल रहा है
उसके आकाश का रंग
नीला नहीं
गहरा काला बना दिया गया है
जैसे श्रम के आकाश के साथ
दगाबाजी की गयी है ।
किन्तु पहाड़ से जब
झरना रिसने लगता है
तो वही नदी बन जाता है
और उसकी बाढ़ में
बह जाती है गंदगी
और कूड़े के ढेर ।

Saturday 14 December 2013

बहिन


लोग माँ के हृदय की
बात करते हैं
होता है सागर से गहरा ,
विशाल ,
हिमगिरि से ऊंचा
इस बार मैंने देखा
बहिन के ह्रदय को
माँ के ह्रदय से आगे
जो विस्तार वहाँ था
उसमें कितनी गहराइयों  की समाई थी
वह  नहीं थी अकेली
ऐसा लगा कि वह
पीहर के आँगन में उगे पीपल की
जड़ों से लिपटना चाहती थी
अपने भाइयों के लिए 
उसने अपने मन की चाबी
सौंप दी थी
भाई - बहिन के रिश्ते का अर्थ
उस अठारह साल छोटी बहिन ने
पहली बार मानो समझा दिया था
रक्षा-सूत्र का एक और अर्थ वहाँ
उद्भूत हो रहा था ।

Friday 6 December 2013

सपेरे

कम हो रहे हैं सपेरे
बीन बजाते
अपने सुरों की दुनिया बसाते
सपेरे कम हो रहे हैं
और साँपों के डेरे बस  रहे हैं
उजड़ रहे है गांव-खेड़े

सांप कभी अपना बिल नहीं बनाते
दूसरों के बनाये बिलों में घुस जाते हैं
बनाता कोई
और रहता है कोई
यह सांप की प्रकृति का हिस्सा है

उनके विष की पहचान गायब है
वे अपना फण फैलाकर
फुफकारते हैं ,डराते हैं
यह सपेरा ही जानता है
कि उसके विषदंत कैसे उखाड़े जाते हैं ?
जब यह कला आ जायगी तो
सांप तो  रहेंगे  , उनका विष नहीं ।  

Wednesday 4 December 2013

चारों हिंदी प्रदेशों के एक्ज़िट पोल के  कयास जो बतला  रहे हैं ,वे सत्ता विरोधी गुस्से का प्रतिफलन ज्यादा है , उसमें नमो को मुफ्त का यश मिलने से नहीं रोका जा सकता   । सच तो सत्ता विरोधी लहर ही  है । वह जहां कांग्रेसी सत्ता  के विरुद्ध है वहीं भाजपा के भी । किन्तु यदि इसका फायदा सिर्फ  भाजपा को ही  मिलता है तो सन्देश में मोदी का नाम जोर-शोर से प्रचारित किया जायगा ।दिल्ली में जहां अति-नया विकल्प खड़ा हुआ , वहाँ वह अपना रंग दिखा रहा है । इसका मतलब यह हुआ कि यदि जेनुइन जन-हृदय स्पृशी- तीसरा विकल्प होता तो आज अन्य प्रदेशों में भी बात बदली हुई होती । 

Tuesday 3 December 2013

राजनीति में जातिवाद और सम्प्रदायवाद का नाग  अपना फण फैलाये घूम रहा है । सावधान रहने की जरूरत है यद्यपि सपेरों की बड़ी कमी महसूस हो रही है ।
विभ्रम फैलाकर सब कुछ समेट  लेने की सत्ताकांक्षा, व्यक्ति को इंसानियत के दर्जे से बहुत नीचे गिरा देती है । जब व्यक्ति तर्कशून्य या कुतर्की हो जाता है तो आपसदारी में भी वर्चस्व की लड़ाई शुरू हो जाती है लेकिन रहते हैं  वे एक ही थैली के चट्टे-बट्टे ।

Monday 2 December 2013

उदासीनता,तटस्थता , मौन और अवसरवाद में मायने के फर्क भले  हों , परिणामों में ये लगभग एक जैसे होते हैं ।' कोउ नृप  होउ हमहीं का हानी' वाला नृपतन्त्रीय दृष्टिकोण लोकतंत्र के लिए बहुत  घातक एवं खतरनाक  होता है ।

खराब जो भी होता है , वह खराब ही होता है चाहे फिर वह कविता हो या आलोचना ।खराब कविता से खराब आलोचना लिखी जाती है और खराब  आलोचना से खराब कविता की पैदावार बढ़ जाती है ।  खराबी एक संक्रामक रोग की तरह होती है । जैसे समाज का जातिवाद और सम्प्रदायवाद राजनीतिक तंत्र और सत्तास्वरूपों को अपने जैसा बना देते हैं ।रावण अपने राज्य को भी अपने जैसा ही रहने की कुबुद्धि का प्रसार करता है । 

Sunday 1 December 2013

लाल किले की प्राचीर
कभी झूठ नहीं बोलती
वह तुम्हारा धंधा है
सत्ता की भूख
काले नाग से ज्यादा
खतरनाक होती है
वह झूठ के किले बनाती है
और बहुरुपियों का स्वांग बनाकर
माया की तरह  भरमाती है

इस भूख की लपट
से जो बचेगा
वही सरोवर की निर्मलता
 और मनोहर घाटों को
बचा सकेगा । 

वह मतदाता बधाई का हक़दार है , जो लोकतंत्र की प्रक्रिया में स्वप्रेरणा से भागीदार बना है । इसी वजह से कल राजस्थान विधान सभा के गठन के लिए जिस तरह उमंग-भाव से मतदान हुआ ,वह इतिहास के एक मील-प्रस्तर की तरह बन गया । इस बार हर बार से अधिक ७४ प्रतिशत से अधिक मतदान होने के  कई मायने निकल रहे हैं , सही बात तो परिणाम ही बतलायेंगे किन्तु इतना जरूर है कि  वे चौंकाने वाले हो सकते हैं ।बहरहाल,  लोकतंत्र  की प्रक्रिया में लोक की भागीदारी का बढ़ना स्वागत योग्य है । निर्वाचन विभाग की व्यवस्थाएं ,प्रचार तंत्र , विकसित होती राजनीतिक प्रक्रिया  , सत्ता पाने की लालसा -आकांक्षा ,जाति -सम्प्रदायों की अपने नेता चुनने की संकीर्ण सोच वाली  ध्रुवीकृत एकजुटता, नए  मतदाताओं  की सक्रियता , पार्टीगत  मनोरचना आदि की भूमिका से जो माहौल बना , उसने मतदाता  को  उत्साहित  करते हुए पोलिंग बूथ तक पहुचाया । यह शुभ संकेत है जो आगे राजनीतिक प्रक्रिया को और सुदृढ़ करेगा , ऐसा माना जा सकता है ।