Thursday 20 February 2014

आदरणीय भाई ,
आपका प्रेरणादायी पत्र।
मुझे इस तरह की निराशा नहीं है कि मैं नागर साहित्य-कला और संस्कृति के क्षेत्र को छोड़कर केवल लोक-साहित्य की ओर प्रस्थान करूँ।उससे कटने  का कोई इरादा नहीं है।उसके साथ इस काम को भी करूँ तो निराशा दूर होती है और सुकून का एक नया क्षेत्र मिलता है।    काम करने के अनेक क्षेत्र होते हैं , इसी तरह साहित्य भी विविध-क्षेत्रों में संचरण करता है।   मैं सोचने लगा हूँ कि केवल  मध्यवर्ग में फंसे रहकर हम  अपनी शक्ति--ऊर्ज़ा को बेजा भी करते हैं।  लोक--जीवन में भले ही मध्यवर्गीय दुनिया का सुयश न मिले , लेकिन जनवादी चेतना का काम यहाँ  भी किया जा सकता है।जो हमारी आलोचना के लिए भी  एक सहज और नया संसार खोलता है।   पिछले दिनों यह प्रयोग अलवर से दो साल से प्रकाशित हो रहे एक पाक्षिक अखबार ---'सलाम मेवात'----में  करके देखा है।  यहाँ भले ही , वैसी कीर्ति और वैसा बखान नहीं होता किन्तु इस क्षेत्र में भी एक जगह है जहां हम अपनी ऊर्ज़ा का सार्थक प्रयोग कर सकते हैं। वह मनुष्य भी तो यहाँ है , जिसके लिए हम लिखते हैं। इस अखबार में,मैं मेवाती बोली में एक नियमित कालम लिख रहा हूँ , जो मेवात के लोगों में लोकप्रिय हुआ है। उसकी पुस्तिका भी वे प्रकाशित करवा रहे है। यह लोकधर्मिता से जुड़ा सीधा काम है। जिसमें किसी तरह की बनावट भी नहीं। दूसरे , साम्प्रदायिकता से सांस्कृतिक  प्रतिरोध भी।
                              फिर आलोचना के  क्षेत्र में भी ,जो कुछ थोड़ा बहुत बन पायेगा ,वह अपनी सामर्थ्य के अनुसार करता रहूंगा। मेरा मतलब सिर्फ इतना है कि इसी काम में अपने को संलग्न रखना मुझे तर्कसंगत नहीं लगता ।इससे मन व्यर्थ में अपने व्यक्तिवाद को सहलाने में लगा रहता है। मैं यह मानता हूँ कि सक्रियता के बिना कोई चारा नहीं है लेकिन वह मनमुआफिक हो,बस मेरा इतना ही मतलब है। मैं निराश कतई  नहीं हूँ। मैं चाहता हूँ कि मैं   अपने लोक---क्षेत्र  में भी रहूँ , जैसे अपने किसान--परिवार के साथ रहता हूँ।ब्रज और मेवात दोनों मेरे अपने हैं और बड़े अंचल हैं।
                         जहां तक प्रकाशन का सवाल है वह अभी तक अपना पैसा  लगाकर ही तो कराया है। हर बार प्रकाशक ने पैसा ही तो लिया है।तीसरी किताब तो पूरी अपने खर्चे से प्रकाशित करवाई , जो अभी भी पडी हुई है। बेचने की कला आती होती तो अपने  आप ही प्रकाशित करा लेते।लेखक संगठन भी इस दिशा में कुछ नहीं सोचते। बहरहाल ,आपकी  कवितायेँ लगातार पढता रहता हूँ। आपकी कविताओं से सम्बंधित  आलेखों को एक रूप देकर पुस्तकाकार  छपाने की मन में बहुत दिनों से हैं , लेकिन तरह तरह के अवरोध आड़े आ जाते हैं।    
                                    आपके पत्र हमेशा प्रेरित करते रहे हैं।आदरणीया भाभी जी को हमारा प्रणाम कहें।
                                                                                                                                     आपका
                                                                                                                                    जीवन सिंह   

Saturday 15 February 2014

तहलका पत्रिका में शालिनी माथुर का एक आलेख पढ़ा ---मर्द के खेला में औरत का नाच। उस पर मेरी टीप ------

इस विस्तृत आलेख में सच का एकपक्षीय  बयान ज्यादा है। और वह भी जैसे जान बूझकर प्रगतिशीलता और जनवाद को बदनाम करने के उद्देश्य से। जनवाद में अनेक तरह के लोग शामिल हैं केवल ये ही नहीं , जिनकी गिनती यहाँ कराई गयी है।  जनवादी वह है जो जनतंत्र को सही मायने में लाने की भूमिका में रहता है।  जो जनवादी नहीं होता वह निरंकुशता के लिए किसी न किसी बहाने से जमीन तैयार  करता रहता है। 
    पवित्रता का बोध कराना सही  है किन्तु उसकी आड़ में किसी तरह के शोषण-उत्पीड़न के लिए रास्ता बनाना पवित्रता का क्षद्म होगा। और  यदि वह जिंदगी  के सच पर आवरण डालता है तो वह पवित्रता नहीं, कलुषता है। ताली दोनों हाथों से बजा करती है।  यह सच है कि पितृसत्ता वाले समाजों में हमेशा स्त्री-शरीर का शोषण -उत्पीड़न सबसे ज्यादा हुआ है और आज भी हो रहा है। किन्तु आज स्थितियों में परिवर्तन तेजी से हुआ है।  उच्च और उच्चमध्य वर्ग की स्त्रियां आज पहले समयों की तुलना में ज्यादा मुक्त हैं , वे सोचती-विचारती और अपनी आकांक्षाओं को व्यक्त भी कर रही हैं।  वे अपने मन के भीतर के यथार्थ को व्यक्त करने का साहस भी जुटा रही हैं।  यह उस पितृ-सत्ता का प्रतिरोध भी है ,जिसकी  जकड़बंदी में वे रहती आई हैं। जैसे स्त्री शरीर बेचने की परिस्थितियां ,व्यवस्था ने बनाई हैं वैसे ही आज के घनघोर  बाज़ारवाद के युग में पुरुष भी अपने शरीर को बेचने लगा है और वर्ग-विशेष की  स्त्रियां अपनी कामना-पूर्ति  के लिए उसे खरीद रही हैं । इसमें बहुत सी विकृतियां भी आती हैं। लेकिन जब कोई समाज बंधनों को तोड़ता हुआ मुक्ति-पथ पर चलेगा तो कई तरह के विचलन भी होंगे। जब नदी में बाढ़ आती है तो वह कगारों को तोड़ती चली जाती है।
   आज  सरप्लस  पूंजी का जो अकूत खजाना एक वर्ग-विशेष के पास इकट्ठा होता जा रहा है वह भी अपने लिए यौन-क्रिया को बाज़ार की तरह बनाता जाता है। वह बिकने और खरीदने की वस्तु  बनती चली जाती है।इस प्रक्रिया में स्त्री ही नहीं , पुरुष भी वस्तु बनता  जाता है।   यह मानव स्वभाव की गति-दुर्गति दोनों है। यह मार्क्सवाद नहीं , फ्रायडवाद है। मार्क्सवाद में  स्त्री भोग की वस्तु  नहीं होती , वह आज जैसे पूंजी के बाज़ार में होती है।  मार्क्सवाद में स्त्री का दर्ज़ा पुरुष की बराबरी का है।  वहाँ किसी तरह की उंच-नीच नहीं।  यौन वहाँ एक  यथार्थ और प्राकृतिक क्रिया है, जिसकी जितनी जरूरत पुरुष को है ,उतनी ही स्त्री को भी।  प्रकृति ने संतुलन पैदा किया है और इसके स्वरुप को द्वंद्वात्मक बनाया  है। बहरहाल , संदर्भित कहानियों की व्याख्या-विश्लेषण एक पक्ष को बहुत उभारकर किया गया  है , जिससे संतुलन गड़बड़ा गया है।

Friday 14 February 2014

विजेंद्र को उनकी घने पर लिखी कविता पर पत्र
   15 फरवरी 20014

आदरणीय भाई ,
भरतपुर के घने की स्मृतियाँ और वर्त्तमान के द्वंद्व से रची आपकी नयी कविता पढ़कर सुख मिला।  कविता में शब्द की कला को आप अपनी तरह से सहेजते हैं।  यही कवि की निजता होती है।  समय तो एक समय में जीने वाले सभी कवियों को लगभग एक जैसा मिलता  है। उसकी वर्गीय मनोरचना और जीवन व्यवहार उसे वही स्वरुप प्रदान करता है जो वह अपने अनुभवों और जीवन-दृष्टि की रासायनिक प्रक्रिया से अपना काव्य-रसायन तैयार करता है।  आपके यहाँ शब्दों की तरंग कुछ अलग तरह से कानों में गूंजती है। प्रकृति के  रूप-रस-रंग और जीवन की दुर्गम  घाटियों  से गुजरते-लुढ़कते  समय और रिश्तों के संघातक तनाव से जो कविता सृजित होती है ,उसका छंद यहाँ  भिन्न रूप में  दिखाई  देता  है।  यहाँ  स्मृति से वर्त्तमान की यात्रा  है और वर्त्तमान से स्मृति की। इसमें स्मृति बाज़ी मारती है और वर्त्तमान सूखे ठूंठ की तरह निर्जीव सा लगता  है। तभी "कुछ नहीं बदला " इस कविता की केंद्रीय टेक--पंक्ति  बनती  है जैसे   संगीतकार ठहरकर आलाप लिया करते हैं और जाहिर करते हैं कि उनकी तान का सारा ताना-बाना यहाँ से निकला है। प्रकृति में हर दिन नया सूर्य उगता है ,जीवन में नहीं। इसीलिये प्रकृति में कुछ नहीं बदलता नज़र आता है , जबकि बदलता है यहाँ व्यक्ति ----"कुछ अधिक उदास ,रिक्त और विचलित "। यहाँ भी यदयपि एक परिवर्तन है ----नहीं देखा कोई साइबेरियन सारस /पंख फड़फड़ाकर करता गर्जनाएं /वे मेहमान अब क्यों नहीं आते / यहाँ बदलाव उदासी को बढ़ाने वाला है। जीवन में तो उदासी और खालीपन है ही। इसमें प्रकृति ही अपनी पगडंडियों से नया सूर्य दिखलाती है।  कविता के भीतर समाई लय शब्द की शक्ति को गति-प्रेरित करती है।  मुक्त छंद में  अर्थ का वहन कैसे किया जाता है यह कविता बहुत सहजता से बतला जाती है।
   इसी कविता के सन्दर्भ से अपने मन की कहूँ तो मुझे भी सभी बातों से विरक्ति सी होने लगी है।  झूठ,छल, कपट और चाटुकारिता तथा मुंह देखकर टीके करने वाला आचरण इतना प्रभावी बनता  जा रहा है कि कहीं जैसे जगह ही नहीं बची है कि अपना पाँव भी टिका सकें।  गहरा अकेलापन जीने को जैसे अभिशप्त हैं।प्रकाशक तीन साल से जुल दे रहा है। जबकि धनिकों और पद -धारी जुगाड़ुओं ने बाज़ी मार ली है।  साहित्य में भी इतनी उठा-पटक और बे-ईमानी आती जा रही है कि ईमान को जैसे कोई जगह ही नहीं बचेगी।  एकला  चलो और देख के चलो  ----के अलावा कोई गति नहीं। मुक्तिबोध के शब्दों में कहूँ तो ---"सबको अपनी -अपनी पडी हुई है।" वैसे ही हम  लोग शहरी मानकों की दृष्टि से पिछड़ी  जगहो पर रहते हैं। मुझे तो अब  नागर  साहित्य  से अच्छा लोक-साहित्य में काम करना लगता है।  इसीलिये पिछले दिनों मेवाती के बात साहित्य पर काम करना शुरू किया है। यहाँ किसानों के बीच मन की कहना--लिखना  सुकून देता है। साहित्य की शहरी दुनिया में ऐसा कहाँ ? नाम-धाम की न मुझे पहले कोई चिंता थी न अब। काम करने के लिए बहुत सारे  क्षेत्र हैं।आपको अपने मन की लिख दी है , जो इन दिनों  मेरे  मन की वास्तविकता है। इसका मतलब यह नहीं कि मैं निराशा के दौर में हूँ। इतना जरूर है कि मेरी आशा का केंद्र बदल रहा है।  बहरहाल , आदरणीया भाभी जी को मेरे प्रणाम कहें।
                                                                                                               आपका ----जीवन सिंह  

Thursday 13 February 2014

रचना ,आज तुम्हारे जन्म-दिन की याद वेलेंटाइन डे की वजह से आई। यह संयोग है कि तुम्हारा जन्म आज के दिन श्योपुर  कलां ---मध्य प्रदेश में एक डिस्पेंसरी में  14 फरवरी 1972 के दिन हुआ। उस  रोज शिवरात्रि भी थी।कितने संयोग एक साथ थे। श्योपुर कलां उस समय जिला मुख्यालय नहीं था ,वह डाकुओं के लिए मशहूर मुरेना जिले में आता था।इस समय वह जिला मुख्यालय बन गया है।   उस समय वहाँ डाकुओं का जोर भी था। जयप्रकश नारायण उनका आत्मसमर्पण कराकर उनको जीवन की मुख्यधारा में लाने का प्रयत्न ही नहीं कर रहे थे  बल्कि ला रहे थे। श्योपुरभी उनका केंद्र था।हम उस समय चम्बल नदी को नाव से पार करते थे , उस समय चम्बल पर पुल नहीं बना था, जो राजस्थान के सवाई माधोपुर से श्योपुर को जोड़ता है।  उसके बाद एक बार जब मैं मुक्तिबोध के जीवन और साहित्य पर केंद्रित एक साहित्यिक कार्यक्रम  में  श्योपुर गया  तो चबल पर पुल बन गया था,  इसी श्योपुर में 1917  में हिंदी के प्रसिद्ध कवि गजानन माधव मुक्तिबोध का जन्म  हुआ था।  तब यह ग्वालियर रियासत के अंतर्गत मराठों के आधिपत्य वाला एक हिस्सा था।  यहाँ तभी सीप नदी के किनारे एक पहाड़ी पर किला बनाया गया था ,जो उस समय के राजतंत्र की एक सुरक्षात्मक जरूरत था। उस समय यहाँ किले के भवनों में वह सरकारी कालेज चलता था , जिसमें मेरी नियुक्ति हुई थी। यह हमारे लिए  नयी और अनजानी जगह थी। लेकिन रोज़ी-रोटी के जुगाड़ के लिए अपने मोह को त्यागना पड़ता है। इसीलिये जगह जगह की ख़ाक छाननी पड़ती है लेकिन इससे हमारे जीवनानुभवों में वृद्धि होती है।  एक जगह तो  पानी  भी सड़ने लगता है।  इसीलिये हमारे यहाँ ऋषियों ने ---चरेवैती- चरेवैती यानी चलते रहो , चलते रहो  ---की शिक्षा दी है।  बहरहाल , तुम्हारे जन्म दिन के अवसर पर इतनी  सारी बातें याद आ गयी। इतनी बातें और किसी के  जन्म से जुडी हुई नहीं हैं , तुमको ये याद रहें इसलिए भी लिखा है। चाहो तो इनको नोट करके  अपनी  डायरी में लिख सकती हो और अपने बच्चों को भी बतला  सकती हो। 
हर  व्यक्ति के जीवन का अपना इतिहास होता है और परिस्थितियां होती हैं ,जिनके बीच उसका निर्माण हुआ करता है। 
तुम्हें मम्मी, पापा ,बहिन ,भाई सभी की  तरफ से जन्म दिन की बहुत बहुत  बधाई और स्नेह।  संजय और बच्चों को ढेर सारा प्यार।ब्यान  जी सा को नमस्ते । . 
                                                                                                                                                      ------ मम्मी -पापा ,  १४ फरवरी 2014 माघ शुक्ल  संवत 2070