Sunday 30 March 2014

प्रिय भाई पीयूष जी ,
आपका अशोक वाजपेयी जी की कविताओं पर लिखने का आमंत्रण मिला ,खुशी  हुई कि आपने मुझे इसके क़ाबिल समझा। जबकि मैं जानता हूँ कि मेरे अपने शिविरों में ही मैं कहीं नहीं हूँ। कविता पर लिखना मेरा शगल नहीं है वरन यह मेरे लिए जीवन की उस सौंदर्यात्मक लय की कलात्मक अभिव्यक्ति को पहचानने का उद्यम है ,जो हमारे जीवन की अपूर्णताओं को और अधूरेपन को ,उसकी रिक्तता को भरने का काम करती है। इसीलिये हर युग के आगे -पीछे बढ़ते-हटते जीवन का हिसाब रखने के लिए आत्मा की आवाज के रूप में कविता लिखी जाती रही है। मुझे अच्छा लगता यदि मैं स्वयं को वाजपेयी जी की कविताओं का सुसंगत  अध्येता पाता।मैं स्वीकार करता हूँ कि  उनकी काव्यसम्मत  गम्भीरता को उसकी सम्पूर्णता में पकड़ पाने में मैं स्वयं को सक्षम नहीं पाता। लिहाजा उनकी कविता के साथ न्याय कर पाना मेरे लिए सम्भव नहीं होगा।आशा है आप इसे अन्यथा नहीं लेंगे।
                                                                                             प्रसन्न होंगे ,                 जीवन सिंह 

Wednesday 19 March 2014

प्यारे दोस्त सलीम भाई ,
आपका गजल संग्रह --एक सवाए सुर को साधे ---पढ़ तो तभी लिया था, जब आप इसे दे गए थे। किन्तु कई कामों के चलते हुए इस पर लिखने का अवसर नहीं मिल पाया।इस बात का अफ़सोस है।  सोचता रहा कि अब लिखूं, अब लिखूं। बहरहाल ,आज मन पापी ने कमर कसी कि अब तो लिखना ही है। इस सम्बन्ध में जो सोच पाया , लिख रहा हूँ।
पहली  यह है कि आपने छोटी बहर  को साध लिया है ,जैसे वामन अवतार ने तीन पैंड में धरती को नाप लिया था।आपने समय को नापने की कोशिश की है। ग़ज़ल अपनी सादगी के लिए जानी जाती है और अपनी गहराई के लिए भी। गहराई की बात तो शायर की जिंदगी से जुडी हुई है ,जो शायर अपनी जिंदगी  के दरिया में जितना गहरा उतरता है , वह उतने ही चमकदार और बेशकीमती  मोती  ढूंढ कर लाता है। आपने भी अपने हिसाब से उतरने की कोशिश की है।  आज की स्वार्थपटु दुनिया में जो लोग जिनकी जय बोल रहे हैं , उसमें सचाई न होकर या तो भय रहता है या फिर डर। दुनिया डर और लोभ के दो पहियों पर चलती है। सच बोलने और उसको समझने वाले यहाँ कितने से हैं।  आज के राजनीतिक माहौल में आपका मतले का  यह शेर बहुत मौजूं है -----ये तेरा भय बोल रहा है /जो उनकी जय बोल रहा है / 
ग़ज़ल में आज तंज़ बहुत मानी रखता है ,जो आपकी ज़बानी बहुत सलीके से यहाँ अल्फ़ाज़ों में गुंथा हुआ है। भाषा में खुलापन  है , जो इस बात का सबूत है कि आप जिंदगी में खुलेपन की महक के कायल हैं। तभी तो 'मालामाल' जैसा शब्द आपके यहाँ अपना वेश बदल कर अर्थ के जंजाल में ऐसी घुसपैठ करता है कि लड़की को   दुःख से मालामाल कर देता है। काफिया हो तो ऐसा जो अपने मूल अर्थ को खोकर अपने नए और शायर के दिए अर्थ में समा जाय।  शब्द वही होता है जो कवि  के अर्थ के पीछे दौड़ने लगे।  यह कथ्य का नया आविष्कार होता है और इसे ही सृजन की नयी रेखा खींचना कहा जा सकता है।
इसी तरह हमारी ज़िंदगी में आज ऐसे नए सामंत पैदा हो गए हैं जो अपने आतंक से अपना काम निकालते हैं।  नए तथाकथित नेता ऐसे ही तो हैं जो बादलों को धमका कर उनसे पानी निचोड़ लेते हैं।  जो किसी को धमाका नहीं सकता वह नेता कैसे हो सकता है।  सही तो कहा है आपने -----बादल को धमकाया जाए/फिर पानी बरसाया जाए। '  इस समय में आतंक के अनेक रूप हैं ,जिनकी अच्छी खबर आपने कई अशआरों के माध्यम से ली है।
आपने इन ग़ज़लों में अपनी ज़मीन अलग से बनाई है ,यह इनकी खासियत है। मुरलीधर और गिरिधर में क्या फर्क हो सकता है ,बारीकी से आपने इस बात को समझा है। यह शब्द की नहीं, अर्थ की बारीकी है , जो आपके यहाँ प्रतीकों की तरह आया है।  यह संयोग मात्र नहीं है कि हमारी महान और क्रांतिचेता कवयित्री मीरा  ने अपना आराध्य गिरिधर कृष्ण को ही बनाया था। वह गोपाल जो ब्रज की रक्षा और इंद्र का दर्प-दलन करने के लिए गिरिधारी बनता है। आदमी के स्वार्थी और काँइयाँपन की खबर आपकी इन ग़ज़लों में सबसे ज्यादा है और यही इनकी खूबसूरती है।
जहां तक इनकी भाषा का सवाल है वह लोगों को , अपने पाठकों को अपने नज़दीक  वाली भाषा है। अपने पास यह अपने पाठक को निमंत्रण देकर बुलाती है। इसके बावज़ूद यह अपने ढंग से अपनी बात को भी आसानी से पाठक के हाथ में किसी फल के उपहार की तरह आ जाती है।  आपकी साफगोई  को इसमें आईने की तरह देखा जा सकता है। और बहुत - सी बातें हो सकती हैं।  फिलहाल इतना ही कि आप अपने समय की जटिलताओं को और आदमी से उसके रिश्तों को  आगे बढ़कर समझने की कोशिश करते रहेंगे ताकि आपकी यह कविता यहीं तक ठहरकर न रह जाय।
                                                           मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार करें
                                                                              आपका ----जीवन सिंह , अलवर 

Monday 17 March 2014

तभी तो पुराने लोगों ने साहित्यकार  के आचरण को उसके लेखन से ज्यादा महत्त्वपूर्ण माना है। हमारे मिथकों में रावण भी बड़ा विद्वान् है। दुर्योधन भी बहुत बड़ा योद्धा और वीर है , द्रोणाचार्य मनीषी और युद्धकला का प्रशिक्षण देने में निष्णात हैं ,भीष्म पितामह परम ज्ञानी और त्यागी -तपस्वी  भी हैं पर ये न्याय की तरफदारी नहीं करते ,बल्कि अन्याय करते हैं या उसके पक्ष में रहते हैं ,इसलिए ख़ास  होकर भी महान नहीं हैं।ये  इतिहास  निर्माता नहीं  वरन  उसके विद्ध्वंसक हैं। यही हमको उन साहित्यकारों के बारे में समझना होगा , जो अपनी प्रतिभा का मेल तिकड़मों और जोड़तोड़ से करते हुए इस दुनियादारी का पूरा भोग करते हैं , सच तो यह है कि ऐसे लोग अपने समय के सबसे बड़े उपभोक्ता होते हैं।  जब तक प्रगतिशीलता की तूती  बोल रही थी ,या कहें उसके जोड़तोड़ से जीवन-लाभ मिल रहा था ,तब तक उसके साथ थे ,अब जब उसका खेल ख़तम जैसा लग रहा है ,तो पाला बदल लेने में किस बात का संकोच ?कोई मुकदमा तो चलाने नहीं जा रहा। फिर जो लोग  उनसे लाभ लेते रहे हैं , वे तो साथ ही रहेंगे। हुक्का-पानी बंद कर देने का समय रहा नहीं। 

Sunday 9 March 2014

आदरणीय भाई आग्नेय जी ,
'सदानीरा' के अंक समय पर मिले किन्तु उनको पढ़ लेने के बाद भी मैं समय पर अपना जवाब  नहीं लिख पाया ,इसका अफ़सोस है।आपका बहुत बहुत आभारी हूँ कि आपने इस बहाने मुझे याद किया।  आपने पहले ही अंक में सही शुरुआत की कि"समकालीन हिंदी कविता में इतनी अधिक कविता है कि वह अब कविता नहीं रही।" इसके ऊपर मिरोस्लाव होलुब के ये शब्द ----तो आँखें खोलने वाले हैं -------"हर चीज में कविता है /यह कविता के खिलाफ /सबसे बड़ा तर्क है /"-- तथ्य यह  है कि आज के अधिकाँश कवि , कविता रचते नहीं , बनाते हैं। इसीलिये कवियों की बाढ़ सी आई हुई है। धनवान लोगों ने यहाँ भी अपना डेरा जमा लिया है। प्रकाशक को पैसा दो और ढेरों कविता संकलन एक साथ छपवा लो।सम्पादक से  सम्बन्धों के आधार पर  रिव्यू करा करा कर यशस्वी बनना  , पुरस्कार झटकना ये सब पैसे वालों के बांये हाथ का खेल हो गया है ,फिर यदि आप तगड़े अफसर हैं तो क्या कहना है ? कवि -कर्म अब साधना की जगह जोड़-तोड़ और धन का गोरखधंधा बनता जा रहा है। अपवाद  स्वरुप ही कवि बचे हैं। विश्व कविता की पत्रिका ---सदानीरा के उत्साहपूर्ण प्रकाशन के लिए मेरी अनंत शुभकामनाएं।  प्रसन्न होंगे।     सादर ,-----जीवन सिंह , अलवर, राजस्थान
               पुनश्च ,  आपके मकान के सामने से निकलता हूँ तो आपकी याद आये बिना नहीं रहती।  आपका अलवर में उस समय होना एक व्यक्तित्व का होना था।अलवर का भौतिक विस्तार जितनी तेजी से हो रहा है ,आत्मीयता का अंतःकरण उतना ही सिकुड़ रहा है। फिर कवि-कर्म क्यों कर न कठिन होगा ? बहरहाल ,जीवन सिंह 
बंधुवर एकान्त जी ,
वागर्थ का नया अंक मिला। धन्यवाद। इसके लोकमत में प्रकाशित
कविता-चोरी प्रसंग पर मेरे मन में कुछ बात यूँ आई ---------

कवि जो
चोरी करता है शब्दों की
नहीं जानता
कि नहीं पहुंचा जा सकता
मंजिल तक , बैठे बैठे
अपने पैरों से पिपीलिका
 उतर जाती है
दुर्लंघ्य पर्वतों के पार


कोयल अपने स्वर में गाती है
तभी मालूम पड़ता है कि
वसंत आ गया है
ऊँट को सुई के छेद से
मत निकालो कवि
यह काम तुम्हारे बस  का नहीं

यह जीवन सरिता
सबके लिए खुली है
चुल्लू भर पानी
अंजलि में भर लेने से
वह नदी नहीं हो जाती
कविता कैसे हो सकती है
पानी के बिना
कवि जो चोरी करता है
शब्दों की
क्या इतना भी नहीं जानता ?
                                 जीवन सिंह , अलवर , राजस्थान
                                 मोबाइल ---09785010072

Saturday 8 March 2014

आरती जी ,
'समय के साखी' का ताजा अंक मिला। आपके सम्पादकीय , समय का चुनाव जिस तरह से करते हैं , वह सबसे अलग तो होता ही है ,आज की परिस्थितियों को समझने की दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण। आपने इस बार सौ वर्ष पहले शुरू हुए पहले विश्व युद्ध की तह में जाकर आज को समझने की सही कोशिश की है।  यह बाज़ार और महाजनी पूंजी को येन केन प्रकारेण बढ़ाते रहने वाला  व्यापारी ही है , जो युद्धों को भड़काता है। युद्ध की जड़ में व्यापार और बाज़ार ही होता है किन्तु वह बहाना कोई और टटोलता है।  दुनिया जब इस रहस्य को समझ जायगी तो युद्ध की परिस्थितियों का अंत हो जायगा। आपने सोचने को मजबूर कर देने वाला , बेहद सामयिक और मौजूं सम्पादकीय लिखा है। बधाई स्वीकार करें।
पाश की कविता के खुले,खतरनाक और  कोमल पक्ष पर कृष्ण मोहन झा का लेख पढ़े जाने योग्य है।खासकर ये पंक्तियाँ सूक्ति की तरह मन में बार बार आती रही -----प्यार करना और जीना उन्हें कभी नहीं आया /जिन्हे जिंदगी ने बनिया बना दिया।
 चंद्रकांत देवताले का मराठी काव्यानुवाद बहुत पसंद आया।महान संत  कवि  तुकोबा की कवितायेँ चार सौ वर्ष पहले की हैं ,किन्तु आज जैसी लगती हैं। यह कविता ,किताब से नहीं ,  जीवन की उस किताब से रची गयी है ,जो आज बहुत कम पढ़ी जाने लगी है।  कविता के लिए यह संसार ,प्रकृति और जीवन का द्वंद्वात्मक स्वरुप ही सबसे बड़ी किताब होता है। कितना सही कहते हैं संत कवि तुकाराम ------"ग्रंथों को बांचता रहूँ ,उम्र कहाँ इतनी /और समझ लूँ ,सब कुछ ऐसा बुद्धिमान भी नहीं /" लेकिन जिंदगी की किताब को वे जीवन भर बांचते रहे। उसी ने उनको संत और कवि दोनों बनाया।
अभी इतना ही  पढ़ा है।  कल ही तो पत्रिका मिली है। बहुत अच्छा , छोटा और साथ रखने योग्य अंक है। पत्रिकाओं की भीड़ में सबसे अलग।
                                                                                                                                    जीवन सिंह , अलवर , राजस्थान