Wednesday 7 January 2015

दुःख


कहाँ समझ में  आता है
आसानी से दुःख
दुःख अपना ही नहीं समझ पाते लोग
 कारण समझ पाना
और भी मुश्किल
अभी तक जो कारण बतलाए गए
गलत साबित हुए
कहीं भी नहीं पहुच पाए
उन कारणों का प्रलाप करते हुए 
भेड़ चाल से
वे आज तक दुनिया को भटका रहे हैं
और आपस में लडवा रहे हैं
उनके झंडे खून से रंगे हुए हैं
क्योंकि उनको अभी तक असली कारणों का पता नहीं चला है  


मेरे नगर के
कम्पनी बाग़ के सामने लगा वट वृक्ष
कितनी यादों में समाया हुआ रहा
तब तक
जब तक उसे ज़िंदा रखने के कारण बने रहे
अब वह कहीं नहीं 
 तक तक खडा रहा वह
जब तक उसका हवा पानी और आग---धरती
और आकाश  से तालमेल बना रहा
दुःख का मतलब है सही तालमेल की कमी
यह सदियों से गायब है हमारे देश में 


एक औरत ने जब अपना दुःख दूसरी औरत से गिडगिडाते हुए कहा
वह कहाँ समझ पाई
उसने उसकी मजाक उड़ाई
वह अनुनय विनय करती रही
उसने उसको देवी और मालकिन तक कहा
लेकिन वह न समझ पाई उसका दुःख
उसकी दुनिया उससे बहुत अलग और दूर की दुनिया थी
यह विडंबना नहीं तो और क्या है कि
हम अपने दुःख उनको सुनाते  हैं
जिनके न कान होते हैं
न आँख
न दिमाग
दिल नाम की चीज तो दूर दूर तक नहीं होती
पत्थरों ने बहती नदियों को हमेशा से रोककर रखा है
नदियाँ जब जब बही हैं
अपनी ताकत से बही हैं
पत्थरों को चुन लेने से  लोकतंत्र की बहती नदी रुकती है 
हम ने उनको अपना नेता चुन लिया है
जो समय के सबसे बड़े दस्युओं से मिले हुए हैं



यह हमारी गलती और सबसे बड़ी चूक रही है  कि
हमने अपना सही विकल्प नहीं बनाया
हमने वह पेड़ तैयार नहीं किया
जो बिन मांगे छाया देता है
हम उस सूरज के पास नहीं गए
जो पूस  की ठण्ड से सबको बचाता  है
सूरज से हमने लोकतंत्र का पाठ नहीं पढ़ा
हमने अपनी प्यारी धरती से भी कुछ नहीं सीखा
उसको भी बाँट---बेचकर हम खाते रहे 
हमने जिनसे दोस्ती गांठी
और जिनको अपना प्रतिनिधि चुना
वे हमारे थे ही नहीं
दुखों की गठरी को ढोते हुए
हम वहाँ पहुचे 
जहां पहले से भूतों का डेरा जमा हुआ था
वे हमेशा भूतकाल की बात करते थे
वे न वर्तमान को जानते थे
 न भविष्य को समझते थे

दुःख के सागर में
फिलहाल हवाएं  अनुकूल नहीं हैं
नौका के पालों में कितने छेद हो चुके हैं
वे जीर्ण--शीर्ण हो चुकी हैं
उनको संवार कर ही हम आगे बढ़ सकते हैं
और उस दुनिया की खोज कर सकते हैं
जहां सूरज की तरह
सबको रोशनी मुहैय्या होती है |