प्रिय शिरीष एवं सुबोध जी, दोनों को एक साथ बधाई । केशव की कविता पर लिखे
पूरे आलेख को दो बार पढ़ा ।सब्से पहले सुबोध जी की आलोचना-भाषा का एक अलग
तरह का असर मन पर हुआ ।यह हिन्दी आलोचना-भाषा का एक नया और विकसित होती
भाषा का एक नया रूप है जिसमें कभी संज्ञा को विशेषण पीछे छोड़ देता है तो
कभी विशेषण संज्ञा को । यह नया रूप हम जैसे लोगों को हिन्दी की जातीय
प्रकृति से दूर छिटकता -सा नज़र आता है । यह युवा जीवन में सभ्यतागत नवीनता
का असर भी हो सकता है । जैसे कविता होते हुए भी कविता कभी एक सी नहीं रहती
वैसे ही आलोचना-भाषा भी । इसके बावजूद इसकी खासियत है ---मानवता की
आधारभूत विचार-दृष्टि से इसका दूर न होना ।यह इसकी ताकत है जिसने कविता
में लोक के समावेश को अलग होकर देखा है ।अन्यथा लोक को देखकर बिदकने का
स्वभाव एक मूलाविहीन मध्यवर्ग ने बना लिया है ।
जहाँ तक केशव की कविता का सवाल है मैं उसकी बनक और खनक का बहुत पहले से कायल रहा हूँ । वहां विचार-दृष्टि जीवन के रास्ते से होकर आती है इस वजह से वह अपना अलग प्रभाव छोडती है । वहां लोक की तोता -रटंत या फार्मूलेबाज़ी नहीं है। उसमें आज के युग का मेहनतकश , उसका संघर्ष ,उसकीसंभावनाएं और उसका सौन्दर्य रच-पच कर आता है ।
जहाँ तक केशव की कविता का सवाल है मैं उसकी बनक और खनक का बहुत पहले से कायल रहा हूँ । वहां विचार-दृष्टि जीवन के रास्ते से होकर आती है इस वजह से वह अपना अलग प्रभाव छोडती है । वहां लोक की तोता -रटंत या फार्मूलेबाज़ी नहीं है। उसमें आज के युग का मेहनतकश , उसका संघर्ष ,उसकीसंभावनाएं और उसका सौन्दर्य रच-पच कर आता है ।