बोहरा जी ने सही सवाल उठाया है ।इसकी वजह लोक शब्द का प्रयोग अनेक संदर्भी होना
है ।जहां तक मैं समझ पाया हूँ , आज की कविता को जब हम लोक के सन्दर्भ में
परिभाषित करते हैं तो उसका सन्दर्भ ----वर्गीय ----होता है ।जब से सरप्लस
पैदा हुआ और समाज वर्गों में विभक्त हुआ तभी से हमारा सोच भी वर्गीय होता
गया , जो होना जरूरी था ।इससे द्वंद्व की स्थिति उत्पन्न हुई ।दूसरे ,
अभिजात और कुलीन लेखन से भिन्न लोकजीवन यानी किसान जीवन के स्तर पर लोक
साहित्य की एक समानांतर धारा प्रवाहित होती रही , लोक उस अर्थ में भी रूढ़
हुआ ।इससे भिन्न लोक शब्द अपने अर्थ के साथ और जीवनानुभवों के रूप में
शास्त्रीय परम्परा के प्रवाह रूप में चले आ रहे साहित्य को भी नया रूप देता
रहा ।आज के समाज की वर्गीय संरचना को देखें तो स्पष्ट हो जायगा कि मौजूदा
स्थितियों में --- लोक का सन्दर्भ ख़ास तौर से निम्न मेहनतकश वर्ग से है ।इस
रूप में आज का लोक भक्तिकालीन लोक से अलग नया अर्थ रखता है ।इसे हम
लोकतंत्र शब्द में प्रयुक्त लोक से भी समझ सकते हैं ।जहाँ यह लोक साहित्य
से अलग हो जाता है ।निराला की परवर्ती कवितायें लोकानुभावों पर आधारित
कवितायें ही तो हैं ।आज हिंदी कविता का सृजन करने वाले दो वर्ग हैं
----मध्य और निम्नमध्य ।निम्नमध्यवर्ग की अनुभूतियों में जहां देश के
श्रमिक-किसान आते हैं वहाँ लोक की उपस्थिति रहती है ।चूंकि , आज भी हमारे
देश में खेती और किसानी का बहुमत है , इस वजह से गाँव की बात कुछ ज्यादा आ
जाये और उसके साथ प्रकृति आ जाय तो यह अनुभव को सहेज कर ही आता है , न कि
किसी तरह के रूपवाद के तहत ।
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