खेतों पर कोहरा है
इस बार
गाँव खेड़े पर पंहुचा
तो देखा
कि इक्कीसवीं सदी के
कुछ काले पीले फूल
इस आँगन में भी
खिलने लगे हैं
गौरैया गाना और
चहकना भूल गयी है
नीम ने सावन में
निबौरी के गीत
अनमने मन से गाये हैं
सर्दी के विरुद्ध
रहने वाले आग-अगिहाने
उसकी तारीफ़ के
पुल बाँध रहे हैं
ऐसा कभी सोचा न था
समय इस मुआफिक
निस्तेज होगा
सांस फूलती है
अलगाव के शिखर को देखकर
खेड़े की चावड के मढ़ पर
खून के छींटे हैं
भेरों के माथे का सिन्दूर
पिघल कर
मोरी में बह रहा है
और भोमिया का ठान
भटकटैया के झाड़ों से
भर गया है
जागरण में सुषुप्ति
के गीतों को
पसंद करने वालों में
इजाफा हो रहा है
आस्था के शहतूतों को
शाखामृग तोड़ कर खा रहे हैं
दलालों के बाज़ार
चौराहों पर सजे हैं
और खेतों पर कोहरा
फसलों की उठान को
सांड की तरह रौंद रहा है
खाप पंचायतों ने
यौवन की बजती प्रेम-बांसुरी
को उतार दिया मौत के घाट
एक कपोत युगल की तरह ,
एक पुरानी सूखी नदी के
बीहड़ जिंदगियों को लीलते रहे
चूल्हा-चौका ,खेत-पनघट
और घूँघट की संस्कृति को उन्होंने
आले में सजा कर रखा
खबर से मालूम हुआ
कि एक दलित दूल्हे की बिन्दौरी
पुलिस के संरक्षण में निकल पाई
बिरादरी और शैतान के गठजोड़ ने
सत्ता की बंदरबांट में
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को
घुटनों पर दौडाया
उसके जीवन-स्रोत इन्ही बीहड़ों में हैं
चांदनी रात में अँधेरे के जाल
पकड़ पाना आसान नहीं
विकास के पैरोकारों ने
गाँव में सडती कीचड को अनदेखा किया
किसान के हाथों और माथे पर
पडी लकीरों
और स्त्री के ललाट पर पड़े
चोट के निशान को
उन्होंने किसान के भाग्य
और स्त्री-योनि से जोड़कर
व्याख्याएं की
शिक्षा-तंत्र ने रोशनी से ज्यादा
अन्धेरा फैलाया
जिससे बगुलों के पक्ष में
राजनीतिक फैसले हुए
खेत फसल से ज्यादा
खरपतवार से भरे रहे
पर यह सब होने के बावजूद
आदमी पहाड़ों की छाती पर बैठकर
वायुयान की तरह उड़ता रहा
उसने सागरो -महासागरों पर
बिस्तर की तरह शयन किया
मैंने इन्ही खेतों की मेंड़ों के पास
खलिहानों में
मेवाती लोक-कवि
साद्ल्ला के ---पंडू न के कड़े ---सुने
मेवात की जमीन से
एक नए महाभारत को वाणी मिली
आत्महनन करने के बावजूद
किसान ने कभी पैदावार से
मुंह नहीं मोड़ा
भूमि-पुत्रों ने सीमा पर
दुश्मन के दांत खट्टे किये
खेतों पर पसरे कोहरे का मुकाबला
अपनी साँसों के ताप से किया
भूमि को चौसर बना
मानवता की फसलें उगाई
इस बार
गाँव खेड़े पर पंहुचा
तो देखा
कि इक्कीसवीं सदी के
कुछ काले पीले फूल
इस आँगन में भी
खिलने लगे हैं
गौरैया गाना और
चहकना भूल गयी है
नीम ने सावन में
निबौरी के गीत
अनमने मन से गाये हैं
सर्दी के विरुद्ध
रहने वाले आग-अगिहाने
उसकी तारीफ़ के
पुल बाँध रहे हैं
ऐसा कभी सोचा न था
समय इस मुआफिक
निस्तेज होगा
सांस फूलती है
अलगाव के शिखर को देखकर
खेड़े की चावड के मढ़ पर
खून के छींटे हैं
भेरों के माथे का सिन्दूर
पिघल कर
मोरी में बह रहा है
और भोमिया का ठान
भटकटैया के झाड़ों से
भर गया है
जागरण में सुषुप्ति
के गीतों को
पसंद करने वालों में
इजाफा हो रहा है
आस्था के शहतूतों को
शाखामृग तोड़ कर खा रहे हैं
दलालों के बाज़ार
चौराहों पर सजे हैं
और खेतों पर कोहरा
फसलों की उठान को
सांड की तरह रौंद रहा है
खाप पंचायतों ने
यौवन की बजती प्रेम-बांसुरी
को उतार दिया मौत के घाट
एक कपोत युगल की तरह ,
एक पुरानी सूखी नदी के
बीहड़ जिंदगियों को लीलते रहे
चूल्हा-चौका ,खेत-पनघट
और घूँघट की संस्कृति को उन्होंने
आले में सजा कर रखा
खबर से मालूम हुआ
कि एक दलित दूल्हे की बिन्दौरी
पुलिस के संरक्षण में निकल पाई
बिरादरी और शैतान के गठजोड़ ने
सत्ता की बंदरबांट में
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को
घुटनों पर दौडाया
उसके जीवन-स्रोत इन्ही बीहड़ों में हैं
चांदनी रात में अँधेरे के जाल
पकड़ पाना आसान नहीं
विकास के पैरोकारों ने
गाँव में सडती कीचड को अनदेखा किया
किसान के हाथों और माथे पर
पडी लकीरों
और स्त्री के ललाट पर पड़े
चोट के निशान को
उन्होंने किसान के भाग्य
और स्त्री-योनि से जोड़कर
व्याख्याएं की
शिक्षा-तंत्र ने रोशनी से ज्यादा
अन्धेरा फैलाया
जिससे बगुलों के पक्ष में
राजनीतिक फैसले हुए
खेत फसल से ज्यादा
खरपतवार से भरे रहे
पर यह सब होने के बावजूद
आदमी पहाड़ों की छाती पर बैठकर
वायुयान की तरह उड़ता रहा
उसने सागरो -महासागरों पर
बिस्तर की तरह शयन किया
मैंने इन्ही खेतों की मेंड़ों के पास
खलिहानों में
मेवाती लोक-कवि
साद्ल्ला के ---पंडू न के कड़े ---सुने
मेवात की जमीन से
एक नए महाभारत को वाणी मिली
आत्महनन करने के बावजूद
किसान ने कभी पैदावार से
मुंह नहीं मोड़ा
भूमि-पुत्रों ने सीमा पर
दुश्मन के दांत खट्टे किये
खेतों पर पसरे कोहरे का मुकाबला
अपनी साँसों के ताप से किया
भूमि को चौसर बना
मानवता की फसलें उगाई
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