आदरणीय भाई ,
आपका प्रेरणादायी पत्र।
मुझे इस तरह की निराशा नहीं है कि मैं नागर साहित्य-कला और संस्कृति के क्षेत्र को छोड़कर केवल लोक-साहित्य की ओर प्रस्थान करूँ।उससे कटने का कोई इरादा नहीं है।उसके साथ इस काम को भी करूँ तो निराशा दूर होती है और सुकून का एक नया क्षेत्र मिलता है। काम करने के अनेक क्षेत्र होते हैं , इसी तरह साहित्य भी विविध-क्षेत्रों में संचरण करता है। मैं सोचने लगा हूँ कि केवल मध्यवर्ग में फंसे रहकर हम अपनी शक्ति--ऊर्ज़ा को बेजा भी करते हैं। लोक--जीवन में भले ही मध्यवर्गीय दुनिया का सुयश न मिले , लेकिन जनवादी चेतना का काम यहाँ भी किया जा सकता है।जो हमारी आलोचना के लिए भी एक सहज और नया संसार खोलता है। पिछले दिनों यह प्रयोग अलवर से दो साल से प्रकाशित हो रहे एक पाक्षिक अखबार ---'सलाम मेवात'----में करके देखा है। यहाँ भले ही , वैसी कीर्ति और वैसा बखान नहीं होता किन्तु इस क्षेत्र में भी एक जगह है जहां हम अपनी ऊर्ज़ा का सार्थक प्रयोग कर सकते हैं। वह मनुष्य भी तो यहाँ है , जिसके लिए हम लिखते हैं। इस अखबार में,मैं मेवाती बोली में एक नियमित कालम लिख रहा हूँ , जो मेवात के लोगों में लोकप्रिय हुआ है। उसकी पुस्तिका भी वे प्रकाशित करवा रहे है। यह लोकधर्मिता से जुड़ा सीधा काम है। जिसमें किसी तरह की बनावट भी नहीं। दूसरे , साम्प्रदायिकता से सांस्कृतिक प्रतिरोध भी।
फिर आलोचना के क्षेत्र में भी ,जो कुछ थोड़ा बहुत बन पायेगा ,वह अपनी सामर्थ्य के अनुसार करता रहूंगा। मेरा मतलब सिर्फ इतना है कि इसी काम में अपने को संलग्न रखना मुझे तर्कसंगत नहीं लगता ।इससे मन व्यर्थ में अपने व्यक्तिवाद को सहलाने में लगा रहता है। मैं यह मानता हूँ कि सक्रियता के बिना कोई चारा नहीं है लेकिन वह मनमुआफिक हो,बस मेरा इतना ही मतलब है। मैं निराश कतई नहीं हूँ। मैं चाहता हूँ कि मैं अपने लोक---क्षेत्र में भी रहूँ , जैसे अपने किसान--परिवार के साथ रहता हूँ।ब्रज और मेवात दोनों मेरे अपने हैं और बड़े अंचल हैं।
जहां तक प्रकाशन का सवाल है वह अभी तक अपना पैसा लगाकर ही तो कराया है। हर बार प्रकाशक ने पैसा ही तो लिया है।तीसरी किताब तो पूरी अपने खर्चे से प्रकाशित करवाई , जो अभी भी पडी हुई है। बेचने की कला आती होती तो अपने आप ही प्रकाशित करा लेते।लेखक संगठन भी इस दिशा में कुछ नहीं सोचते। बहरहाल ,आपकी कवितायेँ लगातार पढता रहता हूँ। आपकी कविताओं से सम्बंधित आलेखों को एक रूप देकर पुस्तकाकार छपाने की मन में बहुत दिनों से हैं , लेकिन तरह तरह के अवरोध आड़े आ जाते हैं।
आपके पत्र हमेशा प्रेरित करते रहे हैं।आदरणीया भाभी जी को हमारा प्रणाम कहें।
आपका
जीवन सिंह
आपका प्रेरणादायी पत्र।
मुझे इस तरह की निराशा नहीं है कि मैं नागर साहित्य-कला और संस्कृति के क्षेत्र को छोड़कर केवल लोक-साहित्य की ओर प्रस्थान करूँ।उससे कटने का कोई इरादा नहीं है।उसके साथ इस काम को भी करूँ तो निराशा दूर होती है और सुकून का एक नया क्षेत्र मिलता है। काम करने के अनेक क्षेत्र होते हैं , इसी तरह साहित्य भी विविध-क्षेत्रों में संचरण करता है। मैं सोचने लगा हूँ कि केवल मध्यवर्ग में फंसे रहकर हम अपनी शक्ति--ऊर्ज़ा को बेजा भी करते हैं। लोक--जीवन में भले ही मध्यवर्गीय दुनिया का सुयश न मिले , लेकिन जनवादी चेतना का काम यहाँ भी किया जा सकता है।जो हमारी आलोचना के लिए भी एक सहज और नया संसार खोलता है। पिछले दिनों यह प्रयोग अलवर से दो साल से प्रकाशित हो रहे एक पाक्षिक अखबार ---'सलाम मेवात'----में करके देखा है। यहाँ भले ही , वैसी कीर्ति और वैसा बखान नहीं होता किन्तु इस क्षेत्र में भी एक जगह है जहां हम अपनी ऊर्ज़ा का सार्थक प्रयोग कर सकते हैं। वह मनुष्य भी तो यहाँ है , जिसके लिए हम लिखते हैं। इस अखबार में,मैं मेवाती बोली में एक नियमित कालम लिख रहा हूँ , जो मेवात के लोगों में लोकप्रिय हुआ है। उसकी पुस्तिका भी वे प्रकाशित करवा रहे है। यह लोकधर्मिता से जुड़ा सीधा काम है। जिसमें किसी तरह की बनावट भी नहीं। दूसरे , साम्प्रदायिकता से सांस्कृतिक प्रतिरोध भी।
फिर आलोचना के क्षेत्र में भी ,जो कुछ थोड़ा बहुत बन पायेगा ,वह अपनी सामर्थ्य के अनुसार करता रहूंगा। मेरा मतलब सिर्फ इतना है कि इसी काम में अपने को संलग्न रखना मुझे तर्कसंगत नहीं लगता ।इससे मन व्यर्थ में अपने व्यक्तिवाद को सहलाने में लगा रहता है। मैं यह मानता हूँ कि सक्रियता के बिना कोई चारा नहीं है लेकिन वह मनमुआफिक हो,बस मेरा इतना ही मतलब है। मैं निराश कतई नहीं हूँ। मैं चाहता हूँ कि मैं अपने लोक---क्षेत्र में भी रहूँ , जैसे अपने किसान--परिवार के साथ रहता हूँ।ब्रज और मेवात दोनों मेरे अपने हैं और बड़े अंचल हैं।
जहां तक प्रकाशन का सवाल है वह अभी तक अपना पैसा लगाकर ही तो कराया है। हर बार प्रकाशक ने पैसा ही तो लिया है।तीसरी किताब तो पूरी अपने खर्चे से प्रकाशित करवाई , जो अभी भी पडी हुई है। बेचने की कला आती होती तो अपने आप ही प्रकाशित करा लेते।लेखक संगठन भी इस दिशा में कुछ नहीं सोचते। बहरहाल ,आपकी कवितायेँ लगातार पढता रहता हूँ। आपकी कविताओं से सम्बंधित आलेखों को एक रूप देकर पुस्तकाकार छपाने की मन में बहुत दिनों से हैं , लेकिन तरह तरह के अवरोध आड़े आ जाते हैं।
आपके पत्र हमेशा प्रेरित करते रहे हैं।आदरणीया भाभी जी को हमारा प्रणाम कहें।
आपका
जीवन सिंह