Saturday 15 February 2014

तहलका पत्रिका में शालिनी माथुर का एक आलेख पढ़ा ---मर्द के खेला में औरत का नाच। उस पर मेरी टीप ------

इस विस्तृत आलेख में सच का एकपक्षीय  बयान ज्यादा है। और वह भी जैसे जान बूझकर प्रगतिशीलता और जनवाद को बदनाम करने के उद्देश्य से। जनवाद में अनेक तरह के लोग शामिल हैं केवल ये ही नहीं , जिनकी गिनती यहाँ कराई गयी है।  जनवादी वह है जो जनतंत्र को सही मायने में लाने की भूमिका में रहता है।  जो जनवादी नहीं होता वह निरंकुशता के लिए किसी न किसी बहाने से जमीन तैयार  करता रहता है। 
    पवित्रता का बोध कराना सही  है किन्तु उसकी आड़ में किसी तरह के शोषण-उत्पीड़न के लिए रास्ता बनाना पवित्रता का क्षद्म होगा। और  यदि वह जिंदगी  के सच पर आवरण डालता है तो वह पवित्रता नहीं, कलुषता है। ताली दोनों हाथों से बजा करती है।  यह सच है कि पितृसत्ता वाले समाजों में हमेशा स्त्री-शरीर का शोषण -उत्पीड़न सबसे ज्यादा हुआ है और आज भी हो रहा है। किन्तु आज स्थितियों में परिवर्तन तेजी से हुआ है।  उच्च और उच्चमध्य वर्ग की स्त्रियां आज पहले समयों की तुलना में ज्यादा मुक्त हैं , वे सोचती-विचारती और अपनी आकांक्षाओं को व्यक्त भी कर रही हैं।  वे अपने मन के भीतर के यथार्थ को व्यक्त करने का साहस भी जुटा रही हैं।  यह उस पितृ-सत्ता का प्रतिरोध भी है ,जिसकी  जकड़बंदी में वे रहती आई हैं। जैसे स्त्री शरीर बेचने की परिस्थितियां ,व्यवस्था ने बनाई हैं वैसे ही आज के घनघोर  बाज़ारवाद के युग में पुरुष भी अपने शरीर को बेचने लगा है और वर्ग-विशेष की  स्त्रियां अपनी कामना-पूर्ति  के लिए उसे खरीद रही हैं । इसमें बहुत सी विकृतियां भी आती हैं। लेकिन जब कोई समाज बंधनों को तोड़ता हुआ मुक्ति-पथ पर चलेगा तो कई तरह के विचलन भी होंगे। जब नदी में बाढ़ आती है तो वह कगारों को तोड़ती चली जाती है।
   आज  सरप्लस  पूंजी का जो अकूत खजाना एक वर्ग-विशेष के पास इकट्ठा होता जा रहा है वह भी अपने लिए यौन-क्रिया को बाज़ार की तरह बनाता जाता है। वह बिकने और खरीदने की वस्तु  बनती चली जाती है।इस प्रक्रिया में स्त्री ही नहीं , पुरुष भी वस्तु बनता  जाता है।   यह मानव स्वभाव की गति-दुर्गति दोनों है। यह मार्क्सवाद नहीं , फ्रायडवाद है। मार्क्सवाद में  स्त्री भोग की वस्तु  नहीं होती , वह आज जैसे पूंजी के बाज़ार में होती है।  मार्क्सवाद में स्त्री का दर्ज़ा पुरुष की बराबरी का है।  वहाँ किसी तरह की उंच-नीच नहीं।  यौन वहाँ एक  यथार्थ और प्राकृतिक क्रिया है, जिसकी जितनी जरूरत पुरुष को है ,उतनी ही स्त्री को भी।  प्रकृति ने संतुलन पैदा किया है और इसके स्वरुप को द्वंद्वात्मक बनाया  है। बहरहाल , संदर्भित कहानियों की व्याख्या-विश्लेषण एक पक्ष को बहुत उभारकर किया गया  है , जिससे संतुलन गड़बड़ा गया है।

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