Friday 14 February 2014

विजेंद्र को उनकी घने पर लिखी कविता पर पत्र
   15 फरवरी 20014

आदरणीय भाई ,
भरतपुर के घने की स्मृतियाँ और वर्त्तमान के द्वंद्व से रची आपकी नयी कविता पढ़कर सुख मिला।  कविता में शब्द की कला को आप अपनी तरह से सहेजते हैं।  यही कवि की निजता होती है।  समय तो एक समय में जीने वाले सभी कवियों को लगभग एक जैसा मिलता  है। उसकी वर्गीय मनोरचना और जीवन व्यवहार उसे वही स्वरुप प्रदान करता है जो वह अपने अनुभवों और जीवन-दृष्टि की रासायनिक प्रक्रिया से अपना काव्य-रसायन तैयार करता है।  आपके यहाँ शब्दों की तरंग कुछ अलग तरह से कानों में गूंजती है। प्रकृति के  रूप-रस-रंग और जीवन की दुर्गम  घाटियों  से गुजरते-लुढ़कते  समय और रिश्तों के संघातक तनाव से जो कविता सृजित होती है ,उसका छंद यहाँ  भिन्न रूप में  दिखाई  देता  है।  यहाँ  स्मृति से वर्त्तमान की यात्रा  है और वर्त्तमान से स्मृति की। इसमें स्मृति बाज़ी मारती है और वर्त्तमान सूखे ठूंठ की तरह निर्जीव सा लगता  है। तभी "कुछ नहीं बदला " इस कविता की केंद्रीय टेक--पंक्ति  बनती  है जैसे   संगीतकार ठहरकर आलाप लिया करते हैं और जाहिर करते हैं कि उनकी तान का सारा ताना-बाना यहाँ से निकला है। प्रकृति में हर दिन नया सूर्य उगता है ,जीवन में नहीं। इसीलिये प्रकृति में कुछ नहीं बदलता नज़र आता है , जबकि बदलता है यहाँ व्यक्ति ----"कुछ अधिक उदास ,रिक्त और विचलित "। यहाँ भी यदयपि एक परिवर्तन है ----नहीं देखा कोई साइबेरियन सारस /पंख फड़फड़ाकर करता गर्जनाएं /वे मेहमान अब क्यों नहीं आते / यहाँ बदलाव उदासी को बढ़ाने वाला है। जीवन में तो उदासी और खालीपन है ही। इसमें प्रकृति ही अपनी पगडंडियों से नया सूर्य दिखलाती है।  कविता के भीतर समाई लय शब्द की शक्ति को गति-प्रेरित करती है।  मुक्त छंद में  अर्थ का वहन कैसे किया जाता है यह कविता बहुत सहजता से बतला जाती है।
   इसी कविता के सन्दर्भ से अपने मन की कहूँ तो मुझे भी सभी बातों से विरक्ति सी होने लगी है।  झूठ,छल, कपट और चाटुकारिता तथा मुंह देखकर टीके करने वाला आचरण इतना प्रभावी बनता  जा रहा है कि कहीं जैसे जगह ही नहीं बची है कि अपना पाँव भी टिका सकें।  गहरा अकेलापन जीने को जैसे अभिशप्त हैं।प्रकाशक तीन साल से जुल दे रहा है। जबकि धनिकों और पद -धारी जुगाड़ुओं ने बाज़ी मार ली है।  साहित्य में भी इतनी उठा-पटक और बे-ईमानी आती जा रही है कि ईमान को जैसे कोई जगह ही नहीं बचेगी।  एकला  चलो और देख के चलो  ----के अलावा कोई गति नहीं। मुक्तिबोध के शब्दों में कहूँ तो ---"सबको अपनी -अपनी पडी हुई है।" वैसे ही हम  लोग शहरी मानकों की दृष्टि से पिछड़ी  जगहो पर रहते हैं। मुझे तो अब  नागर  साहित्य  से अच्छा लोक-साहित्य में काम करना लगता है।  इसीलिये पिछले दिनों मेवाती के बात साहित्य पर काम करना शुरू किया है। यहाँ किसानों के बीच मन की कहना--लिखना  सुकून देता है। साहित्य की शहरी दुनिया में ऐसा कहाँ ? नाम-धाम की न मुझे पहले कोई चिंता थी न अब। काम करने के लिए बहुत सारे  क्षेत्र हैं।आपको अपने मन की लिख दी है , जो इन दिनों  मेरे  मन की वास्तविकता है। इसका मतलब यह नहीं कि मैं निराशा के दौर में हूँ। इतना जरूर है कि मेरी आशा का केंद्र बदल रहा है।  बहरहाल , आदरणीया भाभी जी को मेरे प्रणाम कहें।
                                                                                                               आपका ----जीवन सिंह  

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