Saturday 17 December 2011

कुछ भी नही

कुछ  भी  नही 

बहुत कुछ हुआ
पर कुछ नहीं हुआ
कुछ भी तो नहीं ,
कुछ भी तो नहीं

चाँद पर
चरण पड़े मनुष्य के
कुलाबे मिले
आसमान - धरती के ,
अंतरिक्ष ने
बाहों में भर लिया
पूरी पृथ्वी को ,
 बहुत कुछ तो हुआ
पर कुछ  भी
 नही|


राजा - महाराजा
सम्राट -बादशाह
दुनिया भर के
उतरे सिंहासन से,
धूल - धूसरित
भू - लुंठित हुए
उनके  किरीट-मुकुट
जिरह- बख्तर- गहने
बड़ी बड़ी मूंछे
इतना सब कुछ तो हुआ
पर कुछ भी तो
नही |


इतना अन्नं
पैदा हुआ
कि खा सके
आज जितनी दो दुनिया ,
पर बच्चे
बिलखते रहे भूख से
आसपास,
कंकालों को देखा
साक्षात् |

दूध की बही
नदियाँ ,
श्वेत - क्रांति हुई
पर रोती रही
माँ ऐं
खिबड़ता रहा शिशु
स्तनों से |
इतने फल हुए
सूखे और सरस
गोदामों की तरह भरे रहे घर
पर बच्चे
समाते रहे काल के गाल में ,
इतना सब कुछ तो हुआ
पर कुछ भी तो
नही |



कतारें सजीं
आलिशान गगनस्पर्शी
भवनों की
फटती हैं आंखें
देखकर,
पर जेठ के महीने में
गाँव के छान - छप्पर
अमरबेल क़ी तरह
पसरी
महानगरों में बस्तियां
झुग्गी - झोपड़ी
धधकती रही
पेट क़ी आग में
इतना सब कुछ तो हुआ
पर कुछ भी तो
नही |


फसल को
चाटती रही दीमक ,
लगता रहा
कंडुआ बाजरे में ,
पड़ते रहे
गड्डे सडकों में
लेता रहा अधिकारी
रिश्वत सरेआम ,
खुली पड़ी रही
मोहल्ले में सीवर लाइन ,
पढ़ा लिखा
करता रहा कनबतियां
बंधा रहा न्याय
किताबों क़ी कुछ
पंक्तियों से ,
 इतना सब कुछ तो हुआ
पर क्या हुआ
कुछ भी तो नही
कुछ भी तो नही |

1 comment:

  1. अच्छी कविता है. इतना कुछ हो जाने के बाद भी कुछ न हो पाने के विरोधाभासी यथार्थ का व्यंग्यात्मक चित्रण. पर इस न हो पाने के वजूहात पर सोचने-विचारने और टिप्पणी करने का काम पाठक पर छोड़ दिया गया है, और शायद सही ही. कहीं कुछ तो है ही यहां की फ़ितरत में जो इस सबके लिए ज़िम्मेदार है.

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