Sunday 25 December 2011

गुडहल

 आष्ट्रेलिया के सिडनी महानगर के पेंशर्स्त  उपनगर की नेल्सन स्ट्रीट के १/२६ यूनिट वाले आवास के बाहर  दो  बड़े आकार के और बड़े झौंरदार  फूलों वाले रक्ताभ और पीताभ गुडहल के दो पौधे    दो सजग प्रहरियों की तरह खड़े दिखाई देते है  |एक अनजान और अबोले से देश में मेरे लिए प्रकृति सबसे बड़ा  आश्रय हैं |प्रकृति पूरी वसुधा  को कुटुंब में परिवर्तित कर देती है |जब हमारे साथ कोई नहीं होता तो प्रकृति होती है |प्रकृति  का सन्देश ही यही है --रे ! मानव यदि तू वास्तव में अपना भला चाहता है तो प्रकृतिस्थ रहने की कला जान |तेरी ये कृत्रिम धज बहुत अधूरी और ढलती -फिरती छाया की तरह है | आदमी इस धरती पर प्राकृतिक प्रक्रियाओं से जन्म लेता है और अंतत प्रकृति में ही विलीन हो जाता है |लेकिन प्रकृति के इस रहस्य को आदमी जान कहाँ पाता है |बहरहाल, मेरे लिए एक अनजान देश में प्रकृति बहुत बड़ा सहारा थी |  गुडहल के लाल-पीले जोड़े को देखकर     मेरे   म न में  हलचल मची उसको मैनें  अपने शब्दों में टीप लिया                                          
२६ फ़रवरी २०११ का दिन , कई रोज से घर के बाहर प्रहरी की तरह सजग -सावधान इन लाल-पीले पौधों को देखता हूँ तो मन में अनेक तरह के विचार बादलों की तरह उमड़ने-घुमड़ने लगते हैं | अपने देश-जनपद और गाँव-कस्बे से हजारों किलोमीटर दूर एक अजाने देश में  यहाँ बातचीत करने को सबसे बड़े संगी-साथी और दोस्त ये ही हैं |आदमी  निस्स्वार्थ  भाव से बहुत कम बात करता है|उसके स्वभाव के बारे में तो गोस्वामी तुलसीदास बहुत पहले कह गए हैं कि   --"सुर नर मुनि सब की यह रीती  स्वारथ लागि  करहीं सब प्रीती  |"  हमारे दरवाजे के ये निस्स्वार्थ प्रहरी गुडहल , यौवन को परिभाषित करते मालूम पड़ते हैं |यौवन से  अधिक रूप-सम्पन्न  अवस्था शायद ही दूसरी हो ,बशर्ते कि युवा कविवर बिहारी की इस सलाह  को मानकर जीवन के रंगमंच पर अपनी भूमिका का निर्वाह करते रहें ------
                          
                           इक भीजें चहलें परें बूढें बहें   हजार |
                                                   
                            किते न औगुन जग करें बै नै चढ़ती बार | |
                 
  जब जब बाहर  निकलता  हूँ  तो लाल-पीली  गणवेश पहने ये प्रहरी मुझे शंका की नज़र से निहारते हैं कि हमारे बीच यह कोई नया  जीव कहाँ  से आ गया है ? नवीनता के प्रति हमारी  भावना हमेशा आशंकाग्रस्त रहती है , वह पुरातन को  ढोल की तरह गले से लटकाए रखने में ही अपनी भलाई समझती है |पुरातनता कितनी भी  गतिरुद्ध्ता पैदा करे ,किन्तु व्यक्ति आसानी से उसे छोड़ने को तैयार नहीं होता | अपनी इसी पुरातन -प्रियता की वजह से आदमी हजारों साल पुराने मजहबी ढोल को बजाता रहता है |विज्ञान की बांसुरी से निकले नए स्वरों के साथ उसका स्वार्थ-साधक रिश्ता  रहता है |वह इस बात को मानने को तैयार नहीं कि विज्ञान भी हमको नयी जीवन-दृष्टि देने वाला है |उसके आविष्कारों ने चिंतन का सारा पुराना ठाठ उलट दिया है | फिर बेचारे कालिदास की इस बात पर कौन ध्यान दे कि "पुराना सब कुछ ही श्रेष्ठ नहीं है |"  नवोन्मेष करने में कष्ट होता है इसलिए पुरानी ढपली और पुराना राग ही गाते रहो |निराला की -'नव गति नव लय'ताल छंद नव '--को प्रार्थना की तरह तोतारटंत में गाने वाले तो बहुत हैं ,पर नव गति को समझ कर उस पर चलने वाले कितने से लोग होते हैं | नवीनता कष्ट-साध्य होती है लेकिन नवीनता के सृजनकारी सुख का संसार ही अलग होता है | तभी तो 'कामायनी' में  प्रसाद जीने लिखा ----
                                                                                      पुरातनता का यह निर्मोक
                                                                                       सहन करती न प्रकृति पल एक |
                                                                                        नित्य नूतनता का आनंद
                                                                                         किये है परिवर्तन में टेक |

                                     

1 comment:

  1. उम्मीद करता हूँ कि ऐसे ही आपके जीवन के कुछ अनुभव इसी तरह मिलते रहेंगे |

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