Saturday, 8 March 2014

आरती जी ,
'समय के साखी' का ताजा अंक मिला। आपके सम्पादकीय , समय का चुनाव जिस तरह से करते हैं , वह सबसे अलग तो होता ही है ,आज की परिस्थितियों को समझने की दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण। आपने इस बार सौ वर्ष पहले शुरू हुए पहले विश्व युद्ध की तह में जाकर आज को समझने की सही कोशिश की है।  यह बाज़ार और महाजनी पूंजी को येन केन प्रकारेण बढ़ाते रहने वाला  व्यापारी ही है , जो युद्धों को भड़काता है। युद्ध की जड़ में व्यापार और बाज़ार ही होता है किन्तु वह बहाना कोई और टटोलता है।  दुनिया जब इस रहस्य को समझ जायगी तो युद्ध की परिस्थितियों का अंत हो जायगा। आपने सोचने को मजबूर कर देने वाला , बेहद सामयिक और मौजूं सम्पादकीय लिखा है। बधाई स्वीकार करें।
पाश की कविता के खुले,खतरनाक और  कोमल पक्ष पर कृष्ण मोहन झा का लेख पढ़े जाने योग्य है।खासकर ये पंक्तियाँ सूक्ति की तरह मन में बार बार आती रही -----प्यार करना और जीना उन्हें कभी नहीं आया /जिन्हे जिंदगी ने बनिया बना दिया।
 चंद्रकांत देवताले का मराठी काव्यानुवाद बहुत पसंद आया।महान संत  कवि  तुकोबा की कवितायेँ चार सौ वर्ष पहले की हैं ,किन्तु आज जैसी लगती हैं। यह कविता ,किताब से नहीं ,  जीवन की उस किताब से रची गयी है ,जो आज बहुत कम पढ़ी जाने लगी है।  कविता के लिए यह संसार ,प्रकृति और जीवन का द्वंद्वात्मक स्वरुप ही सबसे बड़ी किताब होता है। कितना सही कहते हैं संत कवि तुकाराम ------"ग्रंथों को बांचता रहूँ ,उम्र कहाँ इतनी /और समझ लूँ ,सब कुछ ऐसा बुद्धिमान भी नहीं /" लेकिन जिंदगी की किताब को वे जीवन भर बांचते रहे। उसी ने उनको संत और कवि दोनों बनाया।
अभी इतना ही  पढ़ा है।  कल ही तो पत्रिका मिली है। बहुत अच्छा , छोटा और साथ रखने योग्य अंक है। पत्रिकाओं की भीड़ में सबसे अलग।
                                                                                                                                    जीवन सिंह , अलवर , राजस्थान

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