Monday, 17 March 2014

तभी तो पुराने लोगों ने साहित्यकार  के आचरण को उसके लेखन से ज्यादा महत्त्वपूर्ण माना है। हमारे मिथकों में रावण भी बड़ा विद्वान् है। दुर्योधन भी बहुत बड़ा योद्धा और वीर है , द्रोणाचार्य मनीषी और युद्धकला का प्रशिक्षण देने में निष्णात हैं ,भीष्म पितामह परम ज्ञानी और त्यागी -तपस्वी  भी हैं पर ये न्याय की तरफदारी नहीं करते ,बल्कि अन्याय करते हैं या उसके पक्ष में रहते हैं ,इसलिए ख़ास  होकर भी महान नहीं हैं।ये  इतिहास  निर्माता नहीं  वरन  उसके विद्ध्वंसक हैं। यही हमको उन साहित्यकारों के बारे में समझना होगा , जो अपनी प्रतिभा का मेल तिकड़मों और जोड़तोड़ से करते हुए इस दुनियादारी का पूरा भोग करते हैं , सच तो यह है कि ऐसे लोग अपने समय के सबसे बड़े उपभोक्ता होते हैं।  जब तक प्रगतिशीलता की तूती  बोल रही थी ,या कहें उसके जोड़तोड़ से जीवन-लाभ मिल रहा था ,तब तक उसके साथ थे ,अब जब उसका खेल ख़तम जैसा लग रहा है ,तो पाला बदल लेने में किस बात का संकोच ?कोई मुकदमा तो चलाने नहीं जा रहा। फिर जो लोग  उनसे लाभ लेते रहे हैं , वे तो साथ ही रहेंगे। हुक्का-पानी बंद कर देने का समय रहा नहीं। 

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