अवधारणाएं ,निस्संदेह जीवनानुभवों से बनती हैं |पहले स्त्री को अधीन किया गया , जैसे शूद्र कहलाने वाले समुदाय को , बाद में उनको शास्त्र-सम्मत घोषित किया गया | जिसका उपयोग स्वामी वर्ग ने तब तक किया जब तक कि अधीनस्थ ने एकजुट होकर उसका तब तक प्रतिकार किया जब तक कि वह स्थिति पूरी तरह बदल नहीं गयी |इसीलिये जीवनानुभवों को पदार्थ जैसी संज्ञा प्रदान की जाती है |आज भी यह संघर्ष अनेक रूपों में जारी है |जीवनानुभव बदल जायेंगे तो धर्म-शास्त्रों की जकडबंदी ढीली होती चली जायेगी |अनिश्चितता और असुरक्षा का बोध भाग्यवाद तथा धर्मवाद को जीवित रखने में बड़ी भूमिका अदा करता है |
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