Sunday, 19 May 2013

करारा जबाव दिया है आपने । जिनके हाथ में जन के नाम पर व्यक्ति की सत्ता है  बहस से शायद ही कभी कोई सरोकार रहा हो । तर्क-शत्रुओं के पास चूंकि एक अखबार के रूप में हल्दी की गाँठ है तो वे क्यों  न खुद को पंसारी समझें । कबीर ने कहा था ऐसे ही लोगों से -----संस्किरत है कूप जल भासा बहता नीर । इस बहते नीर की विशेषता होती है दूसरी छोटी नदियों के नीर को समेट  कर सागर तक पंहुचाना । इस प्रक्रिया में छोटी नदी का नाम बदल जाता है । बहते नीर की तरह बहने वाली हिंदी में " गाली-गलौच " ही चलता है । च यहाँ कीचड फैलाने की व्यंजना कर रहा है ।

Friday, 17 May 2013

कभी-कभी बहस को " तेली रे तेली , तेरे सिर पै कोल्हू " जैसा मोड़ दे दिया जाता  है । तुक नहीं मिली तो क्या है?बोझ तो मरेगा । प्रेम चंद  भले ही प्रलेस के संस्थापक न हों ,लेकिन उनके द्वारा १ ९ ३ ६ में अध्यक्ष के रूप में सौन्दर्य की कसौटी को बदलने की जो बात कही गयी थी , वह तो उन्होंने ही कही थी । यही दिशा है प्रगतिशील-जनवादी लेखन की , जिसे प्रलेस-जलेस और जसम जैसे संगठन आज भी मानकर चलते हैं क्योंकि कुछ लोग अभी भी सौन्दर्य की कसौटी को नहीं बदलना चाहते । वे सत्ता के साथ रहकर भितरमार करते रहते हैं । ऐसी बात नहीं है कि लेखक का अपने संगठन के भीतर संघर्ष नहीं चलता , वह अपने व्यक्तित्व की बलि किसी संघ पर नहीं चढ़ाता और न ही कोई संघ अपने लेखक की बलि चाहता है । चूंकि लेखन का गहरा रिश्ता समाज से होता है और उसे प्रतिरोध की स्थितियों में रहना और उनसे गुजरना पड़ता है इसलिए लेखक- संघ की जरूरत उसे महसूस होती है । जिसे जरूरत महसूस न हो वह अपनी खिचडी अलग पकाने के लिए स्वतंत्र होता है । यहाँ कोई किसी को बांधकर नहीं रखता । प्रजातंत्र में कौन किसको बांधकर रख सकता है ? मैं तो इतना अवश्य मानता हूँ कि ---बंधन के बिना मुक्ति नहीं हो सकती । समाज में रहने वाला आदमी किसी न किसी खूंटे से बंधा रहता है ।
हमारे ब्रज-मेवात में एक कहावत बोली जाती है -----" जुओं के डर से घाघरे  को नहीं फैंका  जाता "  । ऐसे ही यदि समय की कुछ पेचीदगियों से  और मध्यवर्ग के   पूंजीवादी प्रवंचनाओं में फंस जाने से लेखक संघों की सक्रियता में कमी आ जाने का  यह मतलब नहीं निकलता कि इन संघों की जरूरत नहीं है । देखा जाय तो आज संगठन  की पहले से ज्यादा जरूरत है । संगठन ही वह जरिया है जो लेखक को भटकाव से रोकता है और रोक सकता है । वह दिशा निर्देशक का काम करता है । मैं तो यह मानता हूँ कि यदि अज्ञेय अपने व्यक्तिवाद को छोड़कर प्रलेस -जलेस से जुड़े होते तो और बड़े लेखक होते । व्यक्तिवाद रचना का सबसे बड़ा शत्रु होता है , जो उसके अपने भीतर ही छिपा रहता है । लेखक संघ में जब हम रहते हैं तो एक तरह की सामाजिकता , सामूहिकता और साधारणता की बारीकियों से परिचित होते हैं । अनुभवों और विचारों का आदान-प्रदान होता है । त्रिलोचन जी ने अपनी एक कविता में लिखा है -------"-अकेला हूँ , अकेला रहा नहीं जाता " । बहरहाल , मैं स्वयं लेखक संघ की जरूरत अब भी महसूस करता हूँ ।


Tuesday, 14 May 2013

पूंजी का गोरखधंधा सबको नाच नाचता है , जो नहीं नाचना चाहते उनको नाच दिखाता है । एक तरफ बल्ला नाच रहा है तो दूसरी तरफ पतुरिया नृत्य कर रही हैं । जो क्रिकेट देखने नहीं आयेगा वो नाच देखने आयेगा । उनको देखने और टिकट खरीदने से मतलब है । एक साथ दो चीज देखने को मिल जाएँ तो फिर क्या कहना ?ये दुनिया एक सर्कस है प्यारे , जहां नाच ही केंद्र में है । पूंजी के प्रपंच में नैतिकता स्वयं नग्न हो जाती है ।
गुरुदेव के प्रति --------



विश्वकवि गुरुदेव
मेरा देश
आज जिस आँगन का
पंछी है वहाँ
सत्य का प्रकाश इतना मद्धिम हो चुका है
कि न आँगन के कोनो की फुलवारी की
पहचान हो पा रही है
न पंछी के स्वर का माधुर्य
सुनाई पड़ रहा है


अजीब सन्नाटा है
भारी शोरगुल के होते हुए
लोग अपने बेरों को पकाने
की इतनी हडबडी में हैं
कि सत्य कहीं बीहड़ों में जाकर
छिप गया है उसे ढूँढने की कोशिशों में
सर खपाने वालों की संख्या
दिन पर दिन घटती जा रही है
अन्धकार इतना गहरा है कि
लोग उसकी काली परतों को
सच का दर्जा देने लगे हैं
उसकी स्तुतियों को कविता का दर्जा
लगभग मिल चुका है
यह ज़माना नए दरबारों का है
जहाँ स्तुतिगीतों के संग
नगाड़ों का घनघनाता शोर है


गुरुदेव आपने कहा था
'अनवरत परिश्रम से  हमारे हाथ
सिद्धि की ओर बढ़ते रहें '
पर यह क्या ?
तुम्हारी संतानों के मनों में
अनवरत परिश्रम करने से ज्यादा
दलाली में सिद्धि पा लेने की लालसा का
अग्निकुंड धधक रहा है

जब तुम थे धरती पर
तब भी पीड़ा का थार जैसा रेगिस्तान
पसरा हुआ था
पर तब भी तुमने विवेक के झरने को
न सूखने  देने की
हिदायत दी थी
पर यह क्या?
वह झरना   कहाँ है ?
मेरे आदरणीय गुरुदेव  ।

पिछले दिनों में जब तोता बहुत चर्चा में रहा तो मुझे रघुवीर सहाय की एक जमाने में मजाकिया तौर पर लिखी गयी कविता की पंक्तियाँ बहुत याद आती रही । कविता की अर्थ-व्यंजना किस तरह काल का अतिक्रमण कर जाती है , इससे जाना जा सकता है । कविता तो सभी को पता है फिर भी उद्धृत कर रहा हूँ --------
             अगर कहीं मैं तोता होता
             तो क्या होता
            तो  तो  तो  तो
            ता   ता  ता ता 
            होता होता होता

Tuesday, 7 May 2013

मुझे तुम्हारे
विकास से ज्यादा
चैत  में फूला हुआ
रक्ताभ पलाश का
यह पेड़ लगता है
जो अरावली की सूनी गोद में
सीना ताने
खडा हुआ है
यह किसी विकास-योजना में
शामिल नहीं है
पूरी तरह स्वच्छंद ,निर्भीक
साहसी और जोखिम उठाने वाला
पद , पुरस्कार और सम्मानों की लालसा से मुक्त
यह ढाक  का पेड़


जब यह मन भरकर
फूलता है तो
किसान का मन इससे भी
ज्यादा फूलता है
वह अपने संवत का अनुमान
इसको फूलते देख
लगाता है
 यह अनुभवों को
तराशकर  मेरी हथेली पर अचक
रखकर बिना कुछ कहे
खेत की मैंड पर
खिलखिलाता रहता है
 काश इसका स्वभाव
मेरे रक्त में होता ।