Tuesday 14 May 2013

गुरुदेव के प्रति --------



विश्वकवि गुरुदेव
मेरा देश
आज जिस आँगन का
पंछी है वहाँ
सत्य का प्रकाश इतना मद्धिम हो चुका है
कि न आँगन के कोनो की फुलवारी की
पहचान हो पा रही है
न पंछी के स्वर का माधुर्य
सुनाई पड़ रहा है


अजीब सन्नाटा है
भारी शोरगुल के होते हुए
लोग अपने बेरों को पकाने
की इतनी हडबडी में हैं
कि सत्य कहीं बीहड़ों में जाकर
छिप गया है उसे ढूँढने की कोशिशों में
सर खपाने वालों की संख्या
दिन पर दिन घटती जा रही है
अन्धकार इतना गहरा है कि
लोग उसकी काली परतों को
सच का दर्जा देने लगे हैं
उसकी स्तुतियों को कविता का दर्जा
लगभग मिल चुका है
यह ज़माना नए दरबारों का है
जहाँ स्तुतिगीतों के संग
नगाड़ों का घनघनाता शोर है


गुरुदेव आपने कहा था
'अनवरत परिश्रम से  हमारे हाथ
सिद्धि की ओर बढ़ते रहें '
पर यह क्या ?
तुम्हारी संतानों के मनों में
अनवरत परिश्रम करने से ज्यादा
दलाली में सिद्धि पा लेने की लालसा का
अग्निकुंड धधक रहा है

जब तुम थे धरती पर
तब भी पीड़ा का थार जैसा रेगिस्तान
पसरा हुआ था
पर तब भी तुमने विवेक के झरने को
न सूखने  देने की
हिदायत दी थी
पर यह क्या?
वह झरना   कहाँ है ?
मेरे आदरणीय गुरुदेव  ।

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