कभी-कभी बहस को " तेली रे तेली , तेरे सिर पै कोल्हू " जैसा मोड़ दे दिया जाता है । तुक नहीं मिली तो क्या है?बोझ तो मरेगा । प्रेम चंद
भले ही प्रलेस के संस्थापक न हों ,लेकिन उनके द्वारा १ ९ ३ ६ में अध्यक्ष
के रूप में सौन्दर्य की कसौटी को बदलने की जो बात कही गयी थी , वह तो
उन्होंने ही कही थी । यही दिशा है प्रगतिशील-जनवादी लेखन की , जिसे
प्रलेस-जलेस और जसम जैसे संगठन आज भी मानकर चलते हैं क्योंकि कुछ लोग अभी
भी सौन्दर्य की कसौटी को नहीं बदलना चाहते । वे सत्ता के साथ रहकर भितरमार
करते रहते हैं । ऐसी बात नहीं है कि लेखक का अपने संगठन के भीतर संघर्ष
नहीं चलता , वह अपने व्यक्तित्व की बलि किसी संघ पर नहीं चढ़ाता और न ही कोई
संघ अपने लेखक की बलि चाहता है । चूंकि लेखन का गहरा रिश्ता समाज से होता
है और उसे प्रतिरोध की स्थितियों में रहना और उनसे गुजरना पड़ता है इसलिए
लेखक- संघ की जरूरत उसे महसूस होती है । जिसे जरूरत महसूस न हो वह अपनी
खिचडी अलग पकाने के लिए स्वतंत्र होता है । यहाँ कोई किसी को बांधकर नहीं
रखता । प्रजातंत्र में कौन किसको बांधकर रख सकता है ? मैं तो इतना अवश्य
मानता हूँ कि ---बंधन के बिना मुक्ति नहीं हो सकती । समाज में रहने वाला
आदमी किसी न किसी खूंटे से बंधा रहता है ।
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