हमारे ब्रज-मेवात में एक कहावत बोली जाती है -----" जुओं के डर से घाघरे को नहीं फैंका जाता " । ऐसे ही यदि समय की कुछ पेचीदगियों से और मध्यवर्ग के पूंजीवादी प्रवंचनाओं में फंस जाने से लेखक संघों की सक्रियता में कमी आ जाने का यह मतलब नहीं निकलता कि इन संघों की जरूरत नहीं है । देखा जाय तो आज संगठन की पहले से ज्यादा जरूरत
है । संगठन ही वह जरिया है जो लेखक को भटकाव से रोकता है और रोक सकता है ।
वह दिशा निर्देशक का काम करता है । मैं तो यह मानता हूँ कि यदि अज्ञेय
अपने व्यक्तिवाद को छोड़कर प्रलेस -जलेस से जुड़े होते तो और बड़े लेखक होते । व्यक्तिवाद
रचना का सबसे बड़ा शत्रु होता है , जो उसके अपने भीतर ही छिपा रहता है ।
लेखक संघ में जब हम रहते हैं तो एक तरह की सामाजिकता , सामूहिकता और
साधारणता की बारीकियों से परिचित होते हैं । अनुभवों और विचारों का
आदान-प्रदान होता है । त्रिलोचन जी ने अपनी एक कविता में लिखा है
-------"-अकेला हूँ , अकेला रहा नहीं जाता " । बहरहाल , मैं स्वयं लेखक संघ की जरूरत अब भी महसूस करता हूँ ।
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