लोक-कविता और मध्यवर्गीय कविता का फर्क हमको तब समझ में आता है जब हम गिर्दा जी जैसे किसी लोक-कवि के अन्तरंग-बहिरंग की खूबियों को बहुत नजदीक से देख-समझ पाते हैं | महेश जी की कविता को इन्ही लोक-सरणियों से ऊर्जा हासिल होती है |लोक- कवि सीधे-सीधे जीवन-साक्षात्कार करता है इस वजह से उसमें जीवन-विधायक तत्त्वों की स्वतस्फूर्त ऊर्जा आ जाती है |जो कवि विचारधारा से जीवन की यात्रा करते हैं उनमें जीवन -तत्त्व की कमी रह जाती है | बहरहाल, एक कद्दावर लोक- कवि से यह आलेख परिचित कराता है |किन्तु शीर्षक में 'कोहराम' शब्द खटकता है | यह नकार को व्यक्त करता है जब की गिर्दा जी के लोक-कवि की भूमिका द्वंद्वात्मक है |
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