हिंदी जातीय भाषा के रूप में आई है जब कि अन्य भाषा-बोलियाँ जनपदीय स्वरूप में आगे बढी हैं | हिन्दी के सामने उर्दू, अंगरेजी और जनपदीय बोली-भाषाओं के अंतर्विरोध भी रहे हैं | हिन्दी का संघर्ष इस मायने में तिकोना रहा है | हिन्दी को अपनी जगह बनाने में बहुत मेहनत-मशक्कत करनी पडी है और आज तो वह फिर से एक बेहद कठिन दौर से गुजर रही है | हिन्दी क्षेत्र का अलगाव भी इसका बड़ा कारण रहा है |इसके बावजूद वह संवाद का माध्यम बनी है |रही साहित्य की लोकप्रियता की बात ,उसमें आधुनिक-बोध और कलात्मकता का नया परिप्रेक्ष्य उसकी गति को अवरुद्ध करते चलते हैं , जो एक भाषा की परिपक्वता के लिए बेहद जरूरी हैं
बहुत अच्छा लग रहा है कि आप आज भी निरंतर ब्लॉग लिख रहे हैं |
ReplyDeleteनिरंतरता सफलता की कुंजी है
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