Tuesday 16 October 2012

प्रिय भाई पुनेठा जी ,अजय तिवारी का लेख उपलब्ध कराने के लिए धन्यवाद |लेख ठीक है ,विश्लेषण सही है |किन्तु लोक के बारे में पहले से बनी अवधारणा को ही प्रस्तुत किया गया है |यह सही है कि कुछ रचनाकार ऐसे भी हैं जो लोक के नाम पर भावुकता को परोसते हैं |वैसे भावुकता के बिना साहित्य ,साहित्य नहीं रह पाता लेकिन यदि भावुकता अपने समय के यथार्थ को व्यक्त न करके केवल लोक जी वन के भावुक पक्षों का ही बयान करती है तो वह अपने समय से आँख चुराने वाली मानी जायगी |शायद यही सन्दर्भ वे व्यक्त करना चाहते हैं |आप देखें कि तिवारी जी ने "आत्यंतिक "विशेषण लगाया है |जो बतलाता है कि एक सीमा तक वे इसे स्वीकार भी करते हैं |दरअसल दिक्कत यहाँ भी उन जीवनानुभवों की है , जो लोक से जुड़े हुए हैं |शहरी जीवन बिताते हुए ये बस इतना ही देख और समझ पाते हैं |लोक को अपना आलोचक अपने भीतर से पैदा करना होगा |मध्यवर्गीय सीमित सरोकारों से जुड़े लेखक लोक का शायद ही समर्थन करें |लोक एक अलग तरह की दृष्टि की मांग करता है |पता नहीं नागार्जुन , त्रिलोचन , केदार जी की प्रशंसा करने वाले ये लेखक उनके लोक को किस तरह देखते हैं ?बहरहाल ,लोक की विशेषताओं का उदघाटन करने के लिए लोक के बीच का आलोचक पैदा करना होगा |उसकी पहले ये लोग उपेक्षा करेंगे , बाद में स्वीकार भी करेंगे |प्रसन्न होंगे | जीवन सिंह

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