Wednesday 17 October 2012

डायरी १७ अक्टूबर २०१२ की
सिडनी का मौसम बहुत धोखेबाज है ,यद्यपि सुहावना -मनभावन भी है | अभी गर्मी है किन्तु शाम का पता नहीं कि अचानक ठण्ड टपक पड़े |अभी सूरज निकल रहा है , पता नहीं एक पल में वह बादलों द्वारा घेर लिया जाए |वैसे इस समय बसंत चल रहा है सबसे सुहावन ,लेकिन बेचारे बसंत के बीच-बीच में आकर गर्मी- सर्दी- बरसात अपना अडंगा लगाए बिना नहीं मानती |मौसम के बीच एक तरह की छीन-झपट -सी चलती रहती है या ऋतुएँ आँख-मिचौनी का खेल खेलती रहती हैं |यह शहर पेड़ों और पार्कों से घिरा हुआ है |सागर-तट पर बसा टेढ़ी -मेढ़ी चाल चलता हुआ ----सीधी रेखा को नकारता |जैसे पूंजी वादी व्यवस्था में लोग सीधी-सच्ची चाल नहीं चलते |टेढ़ी-मेढ़ी चालों से ही ठगिनी महामाया का कारोबार चलता है |रहीम ने लक्ष्मी को चंचला कहकर उसकी मजाक बनाई है ----कि वह बूढ़े आदमी की पत्नी होने के कारण चंचला है -----पुरुष पुरातन की बधू क्यों न चंचला होय |मैं भी यही मानता हूँ कि इसका कोई चरित्र नहीं होता ,न ईमान होता है ,न कोई धर्म |यह किसी की सगी नहीं होती |इसको वश में रखना आसान नहीं |यदि अतिरिक्त पूंजी इकट्ठी हो गयी तो आदमी को क्रूर होते देर नहीं लगती |पूंजीपति की करुना दिखावटी होती है |वह कभी दूसरों का खून चूसना बंद नहीं करता |ऊपर से पूंजी मधर-मधुर बोलती है किन्तु हर घड़ी अपने हाथ में दूसरों को फंसाने का फंदा लिए रहती है |कबीर ने इसको महामाया कहते हुए लिखा --------माया महा ठगिनी हम जानी , तिरगुन फांस लिए कर डोलै,बोलै मधुरी बानी |कौन है जो नारद -मोह की तरह पूंजी-मोह से ग्रस्त नहीं हुआ |पैसे की जरूरत सभी को बराबर होती है मगर जब उस पर कुछ ही लोग अपना अधिकार जमा लेते हैं तो दूसरों को अभावों की पीड़ा से गुजरना ही पड़ता है |इसलिए इस पर अंकुश लगाने की जरूरत होती है |आवारा पूंजी का काम तो दूसरों को ठगने का ही रहता है |जो इस समय पूरे विश्व में धडल्ले से चल रहा है |बहरहाल यह देश भी आवारा पूंजी का कारोबारी देश है |लेकिन इन्होने थोड़ी सी लगाम लगा राखी है |श्रम के पूंजीवादी कानूनों का पालन करते हुए यहाँ के श्रमिकों को वैसी यातनाओं से नहीं गुजरना पड़ता ,जैसा हमारे देशों में जहां श्रम की सप्लाई अधिक होने से सौदेबाजी करने के ज्यादा से ज्यादा अवसर बने रहते हैं |दुनिया में सबसे सस्ता श्रम शायद हमारे यहाँ ही बिकता है |

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