Friday 5 October 2012

आदरणीय भाई ,
आपका ई-पत्र |अपनी जगह तो अपनी ही होती है |गाय भी अपने खूंटे को आसानी से कहाँ भूलती है |सूर ने कहा भी है ----"-मेरो मन अनत कहाँ सचु पावै |जैसे उडि जहाज कौ पंछी पुनि जहाज पै आवै ||"महिलाओं की जड़ चूल्हे में होती है | आवास को उनकी भावनाएं ही 'घर' का रूप देती हैं |हमारा मन भी यहाँ से आने को बीच-बीच में तुडाता है , किन्तु विवशता की वजह से मन को नियंत्रित करना पड़ता है |अलंकार को उसके बच्चे की वजह से हमारी जरूरत है |यहाँ सहयोगी तो मिलते नहीं ,घर के लोग सस्ते भी पड़ते हैं और विश्वसनीय भी |वह हमारी वीजा अवधि को और बढवाने की कह रहा है |आगे भी यहाँ अभी और आना जाना पड़ सकता है |इस वजह से 'कृति-ओर'का दायित्व निभा पाना आसान नहीं होगा ,यद्यपि मैं जानता हूँ कि यह कार्य कितना महत्त्वपूर्ण है |वह भी ऐसे समय में जब चारों ओर विचारधारा को दरकिनार किया जा रहा है और लोक की घनघोर उपेक्षा या उसके प्रति कुलीनता वादी रवैया |अच्छा यही रहेगा कि रमाकांत जी अवसादमुक्त होकर इसे करते रहें |उनका मन भी उत्साहित रहता है |कृति-ओर ' का संपादन करते हुए वे अवसादमुक्त रह सकते हैं |आपको यह विश्वास दिला सकता हूँ कि आगे भी मेरा पूरा सहयोग रहेगा |
आनंद प्रकाश जी की मुक्तिबोध पर आई किताब की खबर से चित्त विस्तार हुआ |हिंदी में आती तो क्या बात थी ? ज्ञानरंजन जी को लगा होगा कि शून्य में समय को उनकी जरूरत है | बाकी सब ठीक है |भाभी जी को हमारा प्रणाम कहें | आपका ------जीवन सिंह

No comments:

Post a Comment