Monday, 5 May 2014

विकास वन- प्रांतर
 उजाड़ कर
हो सकता है
नदियों को प्रदूषित कर
विकास की गंगा
बहाई जा सकती है
पहाड़ों के बांकपन और
उदात्त उत्तुंगता  को
मैदान में खदेड़ कर
विकास की  पटरी
बिछाई जा सकती है
वैसे ही जैसे श्रम-शक्ति
और भू-सम्पदा  को
उपनिवेश बनाकर
यूरोप ने अपने यहां
विकास का समुद्र बना लिया था
इतिहास की कोठरी में
वह भूत बैठा है
 देर से ही सही
लगता है धीरे धीरे यह बात
समझ में आ रही है

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