Friday 9 May 2014

मैंने इस बहस को आज सुबह  २३ घंटे बाद पढ़ा। मैं इस पर चुप ही रहता ,किन्तु इसमें मेरा  नाम होने की वजह से मुझे  अपना पक्ष रखना जरूरी लग रहा है। मैं यहां बतला  दूँ कि इन कवियों पर 'पुनर्परीक्षण ' स्तम्भ के अंतर्गत एक श्रृंखला के रूप में --कृति ओर ---पत्रिका के पांच अंकों में विस्तार से  मैंने तब  लिखा था , जब विजेंद्र जी के हाथ में इस पत्रिका का पूर्ण सम्पादन था ,तब भी  यह इनकी कविता का पुनर्मूल्यांकन था , जिसमें इनकी सीमाओं का विशेष उल्लेख था। तब भी , जहां तक मुझे याद आ रहा है , इनको क्षद्म कवि जैसी संज्ञा प्रदान नहीं की गयी थी।  मैं इनकी कविताओं की सबसे बड़ी सीमा इनकी अंतर्वस्तु का विस्तार  न हो पाना मानता हूँ। जिसकी वजह इनके जीवनानुभवों का मध्यवर्ग तक सिकुड़ कर रह जाना है। ये जीवन का आलोचना धर्म तो निभाते हैं ,किन्तु उस अवस्था तक नहीं पहुँच पाते , जहां काल्पनिक ही सही , समता के  मुक्त भाव का साहचर्य पाठक को मिलता है।  क्षद्म कवि तो कवि होता ही नहीं। चूंकि ये कवि ,युवा वर्ग के आदर्श के रूप में पेश किये जाते  रहे  हैं  ,और मुक्तिबोध की कविता के बड़े प्रयोजन तक  को अनदेखा किया जा रहा था ,इसलिए भी यह उपक्रम जरूरी  आलोचना धर्म मानकर किया गया था।इसके अलावा नागार्जुन , केदार, त्रिलोचन की कविता की बड़ी जमीन  और उसकी परम्परा को  आँख ओट करने की रणनीति की आहटें आने लगी थी।चूंकि समाज में वर्ग विभाजन तेजी से बढ़ा है ,इस वजह से कविता का स्वरुप भी बदल रहा है।इसमें क्षद्म और असली की टक्कर  न होकर वर्गीय सीमाओं में संघर्ष की जो स्थितियां बनती  हैं , बहस उन पर होनी चाहिए।  इन आलोचनाओं की वजह से कई जगह मुझे ध्वंसकारी आलोचक के खिताब से भी नवाजा गया।  यह दरअसल तब भी होता है , जब हम प्रवृत्तियों को दरकिनार कर कुछ व्यक्तियों के  नामों से ही अपना काम निकलने लगते हैं।  हमारी बातें कविता से पुष्ट हों तो बात ज्यादा साफ़ और प्रामाणिक होगी। तात्कालिक  सरलीकृत सूत्र उत्तेजना तो पैदा कर सकते हैं ,कहीं पहुंचा नहीं सकते।

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