Tuesday, 24 July 2012

सिटी रेल ये सिटी रेल
आना -जाना बस एक खेल
नदियाँ पार कराती है ये
घाटी में चढ़ जाती है
दर्रे से ना डरती है ये
बीहड़ में घुस जाती है
चलती है तो लगती है
जैसे चलती लम्बी बेल |
पूरब में ले जाती है
तो पश्चिम में पहुंचाती है
उत्तर-दक्खिन घुमा-फिराकर
अपने घर ले आती है|
मन से चंचल ,तन से रहती
लेकिन बिलकुल ठावाठेल |

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