Tuesday, 11 August 2015

समय का बाज़ ------
चिड़ियों में खलबली है
कि समय का बाज़
मुंडेर पर आ बैठा है
उसके पंजों में खून लगा है
नाखूनों में सड़े मांस की दुर्गन्ध
चिड़ियों में बेचैनी है
कि कबूतर मार दिए जायेंगे
तोते उड़ा दिए जायेंगे
मैना की गर्दन मसक दी जायगी
गौरैया गीत गाना भूल जायगी
जंगल को उजाड़ वीरान कर दिया जायगा
बगीचों में मनाही कर दी जायगी
कि अब कोई दूसरा फूल नहीं खिल सकता
एक फूल एक रंग एक देश का सिद्धांत
जो नहीं मानेगा
राष्ट्रद्रोही कहलायगा
समय का बाज़ मुंडेर पर आ बैठा है
पहले जब चिड़ियों का राज था
वे मदहोश थी
सत्ता के रथ में बैठी
रसपान करती थी
अपने ही रक्त का
अपने भतीजे भाई थे
अपना परिवार था
राजनीति की दूकान में
अपना ही कारोबार था
जातियों के गणित लगाए जाते थे
सम्प्रदायों के सतूने
बिठाकर शतरंज की बाज़ी
जीत ली जाती थी
रथ आता तो घोड़ा पकड लिया जाता था
पर ऐसा कब तक हो सकता है
जब जमीन देने लगती है जबाव
आसमान भी अपना नहीं रहता
अर्थनीति आती थी विश्व बेंक से
अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष
चिड़ियों का चुग्गा बनाता था
कुछ पिछलग्गू थे
जिनकी अपनी जमीन नहीं थी
बेखबर थे कि
बाज़ लगातार रणसंधि करने में लगा है
उसने कबूतरों के लिए पाठशालाएं खोली हैं
गाँव ---ढाणी से लगाकर
शहर --महानगर के हर मोहल्ले तक
जाल बिछ गया है
संगठनों का तराऊपर
घर घर में
मंदिर निर्माण की खुली चर्चा
तोते करते हैं
पेड़ों के नीचे सुबह सुबह
चिड़ियों को चुग्गा डाला जाता है
दिमाग की सिल पर ऐसी भंग पीसी जाती है
कि पीने वाला सुधबुध खो बैठता है
सब कुछ मालूम था कि
व्यापारी किसी का सगा नहीं होता
उसे जो चुग्गा डालता है उसका हो जाता है
उसे आपकी सूरत और सीरत से कुछ लेना देना नहीं
वह व्यापारी है पूंजी का दलाल है
उसके लिए सब कुछ जायज है , हलाल है
आपका इतिहास जो हो
उसे आप खुद भूल चुके हैं
वह अब न तुम्हारे काम का है
न तुम्हारे अनुचरों का
जहां सोच--विचार पर ताला जड दिया गया है
पेड़ों को ठूंठों में बदल दिया गया है
वहाँ गिद्धों को आमन्त्रण आपने दिया है
जहां गिद्ध आने लगते हैं
वहाँ आता है ---समय का बाज़ भी |

Sunday, 9 August 2015

१० अगस्त २०१५

बहुत से लोग आलोचक बनने से शायद इसलिए डरते हैं कि कोई भी रास्ते चलता उनके ऊपर अपनी उपेक्षा करने का आरोप लगा देगा |रचना संसार में जितने आरोप आलोचक पर लगे हैं क्या किसी अन्य पर लगे हैं ?

Friday, 7 August 2015

प्रतिशोध में भी जरूर थोडा बहुत प्रतियोगिता का भाव होता होगा ?अस्वस्थ भाव प्रतिशोध की ओर चला जाता है और स्वस्थ भाव प्रतियोगिता की ओर |
लाखों अग्म्भीरों से एक गंभीर ज्यादा श्रेयस्कर होता है क्योंकि वह बात को उदात्तता और ऊंचाई की ओर ले जाने में सहायक होता है |
अंगरेजी चाहे भारत की भाषा न हो किन्तु शासक---भारतीयों और बिचौलियों की भाषा तो है जिसका लोग आसानी से अनुकरण करने लगते हैं |यथा राजा तथा प्रजा कहावत यों ही तो नहीं बनी |
मन की बात में भी जब राजनीति हो , मन की बात नहीं रह जाती |
नीचे गिरना ही आसान होता है ऊपर जाने के लिए बहुत ऊर्जा और अभ्यास की जरूरत होती है |इसीलिये राजनीति में गिरना क्रिया का महत्त्व सबसे ज्यादा होता है |
उत्कृष्टता के लिए हमेशा पापड़ बेलने पड़े हैं |तभी तपस्या और साधना जैसे शब्द मानवीय कोश में आये हैं |तप अधार सब सृष्टि भवानी |लेकिन राजनीति एक ऐसा गोरखधंधा बना दिया गया है जिसमें बहुत आसानी से चापलूसी के बल पर बहुत कुछ हासिल हो जाता है |या फिर प्रोपर्टी डीलिंग में ---यानी दलाली में ,पौबारह हैं |आजकल कदाचित इसीलिये हर धंधे में दलालों की बाढ़ आयी हुई है |साहित्य भी इससे अछूता कहाँ रह गया है ?
यह स्वभाव है कि
परिचय से ही
पसंदगी बढ़ती है
या फिर जिससे
स्वार्थ की संभावनाओं के आकाश में
सितारे दीप्त होते हैं |

Thursday, 6 August 2015

समय को पहचानो
उसकी नजाकत को जानो यार
इस समय
जो विरोध में होगा
समझो
वह चीजों को जान गया है
जो समर्थन करेगा
उसने कभी मरुस्थल की यात्र्रा नहीं की है
लड़ाई यह सोचकर नहीं की जाती
कि इसमें कितना नुकसांन फायदा होगा
जो ऐसा सोचते हैं
व्यापारी होते हैं
और हमेशा
हर तरह की
सत्ता की चापलूसी में
नारे लगाते पाए जाते हैं
समय का शिशु
हमेशा
मुझसे पूछता है कि
क्या तुम जानते हो कि
कहाँ जाना है
और कैसे जाना है
किनका साथ लेना है
और किनका देना है
शिशु का उत्तर मेरे पास नहीं
सवाल के जबाव में
मैं खुद से सवाल पूछने लगता हूँ
उत्तर कभी नहीं तलाशता
दोष गिनाने लगता हूँ
उनके
जो कर्मरत हैं
जिन्होंने सुबह सुबह सड़क को बुहार कर
साफ़ किया है
जिन्होंने दूसरों के वस्त्रों पर
प्रेस की है
जिन्होंने खेत की माटी को
अपनी साँसों की
दीवट बनाया है
वे मेरी कसौटी से अभी बहुत दूर हैं
जिनके कपडे मैले हैं
जिनके बदन से पसीने की गंध आती है
मेरी कसौटी में वे कहाँ हैं
इस तरह से मैं अपना कद
बड़ा करता हूँ
क्योंकि यहाँ कोई ऐसी कसौटी नहीं
जो नागरिकों को सिर्फ बाहर से
उनके चेहरे देखकर नहीं
भीतर से जांच सके
आत्मा के अन्धकार की थाह ला सके
इसी उधेड़ बुन में
सारा समय सिरा जाता है
जैसे बरसात का पानी
किनारे और गहराई न हों तो
बह जाता है |
सिन्धु में हिन्दू
इस्लाम में शांति
बौद्ध में बोध
जैन में जिन
सिख में शिष्य
ईसा की करुणा
जीवन के परम सन्देश
लेकिन देश इनमें कहाँ है ?
देश इनके भीतर जब रहेगा
सिन्धु, शांति , बोध , जिन
सबके अर्थ बदल जायेंगे |

Wednesday, 5 August 2015

कहाँ सुरक्षित है
रेलयात्रा की तरह
हमारी जीवन यात्रा
गहरा रिश्ता है इनमें
जैसे नदी और तट में
जैसे खेत और फसल में
जैसे सूरज और उसके ताप में
जैसे शहर में और सड़क में
जीवन यात्रा सुरक्षित यदि नहीं
होंगी अन्य सभी यात्राएं
सूखी नदी की तरह
जीवन यात्रा के सुरक्षित होने पर
हो जाती हैं
अन्य यात्राएं सुरक्षित
जैसे वृक्ष मूल की उर्वरता से
फूल फल |
उत्तर ---क्रिया पर भी नियंत्रण तभी हो सकता है जब मन पर नियंत्रण हो |मूल बात तो मन की ही है वही सारे नियंत्रण रखता है |

उत्तर ---लेकिन क्रिया संचालक तो मन ही होता है |वह मन और क्या मस्तिष्क ही तो होता है |सारी क्रियाओं का केंद्र मस्तिष्क में है | सभी क्रियाओं के आदेश वहीं से प्रसारित होते हैं | मन , ह्रदय , मस्तिष्क ये सभी दिमागी क्रियाएं हैं और कुछ नहीं |मन पर नियंत्रण न रख पाने वाले सारे उलटे---सीधे करतब करते रहते हैं |इसीलिये आजकल ब्रेन डैड हो जाने पर मृत्यु मान ली जाती है चाहे हार्ट काम करता रहे |

इन विषयों पर मौलिक लेखन होना चाहिए |अनुवाद में तो ऐसा ही होता है जब तक कोई अनुवादक भाषा और विषय दोनों में पारंगत नहीं हो |विज्ञान और समाजशास्त्रीय विषयों में अच्छे अनुवाद , जो हिंदी भाषा की प्रकृति के अनुकूल हुए हों , बहुत कम पढने में आते हैं |इतना समय हो गया क्या अब भी इन विषयों को समझकर मौलिक ढंग से नहीं लिखा जा सकता |अनुवाद में हमेशा उस भाषा का दबाव और तनाव रहता है जिस भाषा से अनुवाद किया जाता है |

Monday, 3 August 2015



आधुनिक समय में हिंदी की चुनौतियां


डा जीवन सिंह



हिंदी के सामने हमेशा से ख़ास चुनौती आधुनिक तत्त्व बोध और अपनी जगह हासिल करने की  रही है जिसमें वह सबसे ज्यादा पिछडती रही है |उसके अनेक ऐतिहासिक ---सामाजिक---आर्थिक---राजनीतिक  कारण रहे हैं |पहला  मुख्य ऐतिहासिक कारण भारतीय जन का उसकी अपनी  सत्ता से बेदखल होना रहा है |हमारा समाज ऐतिहासिक तौर पर अपनी स्वाभाविक गति से दूर हटता चला गया है और इसे कई ऐसी बाहरी सत्ताओं का सामना करना पडा है जो अपने साथ अपनी प्रभुता ही नहीं वरन  अपना सांस्कृतिक तामझाम भी साथ लेकर भारत में आई ,जिन्होंने यहाँ आकर भारत की स्वाभाविक गति को अच्छे और बुरे दोनों अर्थों में प्रभावित किया |बुरे तौर पर ज्यादा, अच्छे तौर पर कम क्योंकि  पराधीनता कैसी भी क्यों न हो , हमेशा दुखद होती है |कुछ लोग अंग्रेजों की गुलामी को खासतौर से  देश के लिए वरदान जैसा मानते हैं किन्तु इतिहास---गति से मालूम है कि किस तरह से वे यहाँ के समाज की विभाजित एकता में गहरी दरार डालकर   अपना उल्लू सीधा करते थे |जैसा कि सब जानते हैं कि वे यहाँ आये थे व्यापारी बनकर किन्तु लगातार अपनी कुटिल चालों और यहाँ की अपनी बुनियादी कमजोरियों को समझते हुए वे व्यापारी यहाँ के शासक बन गए |चूंकि भारत की पूंजी के बल पर उन्होंने अपने देश का औद्योगिक—तकनीकी विकास किया जिसकी ताकत से वे लगभग दो शताब्दियों तक यहाँ जमे रहे |यह कालखंड भारतीय इतिहास  का सबसे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण हिस्सा है जिसमें भारतीय समाज ने अपमी मौलिकता को लगभग खो दिया |मौलिकता के नाम पर यहाँ शेष रहा केवल रुढ़िवाद और दकियानूसीपन |और नवीनता तथा आधुनिता के नाम पर हाथ लगी विदेशी भाषा और विदेशी मानसिकता |अंग्रेजों के दो सौ साल के शासन ने यहाँ उनका एक बेहद प्रशंसक वर्ग तैयार कर दिया था जो सांस्कृतिक तौर पर पूरी तरह से उनका गुलाम हो चुका था , जो भारत की सामान्य जनता के दुःख---दर्दों से किताबी रिश्ता ज्यादा रखता था और जिसने उसके दुःख दर्दों को भीतर से महसूस करने का नाटक ज्यादा किया था |इस वर्ग में  महात्मा गांधी जैसे लोग अपवाद की तरह थे | जो अपने कुछ दकियानूसीपन के बावजूद मैलिक ढंग से सोचने की क्षमता रखते थे |लेकिन आज़ादी मिलने के बाद विभाजन होने की वजह से वे इतने कमजोर हो चुके थे कि कर कुछ भी न सकते थे |उनकी नैतिक ताकत का असर इस समय तक लगभग ख़त्म हो चुका था | उनको जो करना था वह काम वे पूरा कर चुके थे |उनके  पीछे उनके जो अनुयायी थे वे उनको सांस्थानिक तौर पर ज़िंदा रखने के काम में लग गए थे |भाषा---संस्कृति का सवाल दकियानूसी वर्ग के हाथ में चला गया था जो हिंदी को आधुनिक बोध से संपन्न करने की बजाय केवल नारों के बल पर हिंदी को स्थापित करना चाहते थे |वैसे भी इस समय तक हिंदी के वास्तविक और प्रभावी क्षमतासंपन्न कितने से लोग रह गए थे | सत्ता मिल जाने के बाद कितने ही लोग थे जो अपनी बात से पीछे हट गए थे |उसी का परिणाम था कि देश में फिर से अंग्रेजों का नहीं , अंगरेजी का वर्चस्व कायम हो गया था |
अठारहवी सदी के मध्य में काबिज हुई अंगरेजी हुकूमत ने वस्तुतः देश की बुनियाद को क्षत---विक्षत कर दिया था |उन्होंने अस्वाभाविक तौर पर यहाँ के देशी सामाजिक----आर्थिक---सांस्कृतिक प्रवाह को इस तरह से अवरुद्ध किया कि आज तक देश का सामान्य मेहनतकश वर्ग उसका दुष्परिणाम भोग रहा है |हुआ यह कि वे जब यहाँ से गए तब तक देश में अपना समर्थक  एक ऐसा प्रभुतासंपन्न अंग्रेजीदां वर्ग तैयार करके गए थे जिसने उनके जाने के बाद यहाँ भारतीय सत्ता को हासिल किया और वे अंग्रजों की नीतियों को प्रगतिशील मानकर सामान्यतया उनपर ही चलते  रहे | देश को आज़ादी तो जरूर मिली पर वह इसकी पुरानी  बुनियाद को बदल न सकी | लोकतंत्र के नए भवन में ऐसा शायद ही कुछ हो जो भारत की संस्कृति को पुरातनता से मुक्ति दिला सके |क्या वजह है कि स्वतंत्र भारत में जितना विकास होता गया है उतना ही जातिवाद और साम्प्रादायिकता दोनों अपनी प्रभुता और पकड में वृद्धि करते चले गए हैं  ? कदाचित उस समय के प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरु को अपनी भाषाओं की क्षमताओं पर ज्यादा भरोसा नहीं था |जरूरत थी देशी भाषाओं को सब तरह से आधुनिक बोध से संपन्न बनाने की  |ज्ञान---विज्ञान और समाज विज्ञान आदि के स्तर पर मौलिक अनुसंधान से आपूरित करने की  |लेकिन काम हुआ सिर्फ अनुवाद का | कोई भाषा किसी विदेशी भाषा के ज्ञान के अनुवाद से अपनी मौलिकता अर्जित नहीं कर सकती |मौलिकता के लिए मौलिक तौर पर सोचना पड़ता है |जिनकी हिंदी में ही नहीं लगभग सभी देशी भाषाओं में ऐतिहासिक वजह से कमी थी |यह काम अंग्रेज शासकों ने जान बूझकर किया था |उन्नीसवी सदी के आरम्भ से लगाकर मध्य तक उन्होंने भाषा और शिक्षा के सवालों पर बहुत सोचा था जिससे परिणाम निकाला था कि अपनी यानी विदेशी भाषा में शिक्षा देकर ही इस देश की जनता को लम्बे समय तक गुलाम बनाया जा सकता है |कहना न होगा कि लार्ड मेकाले और उसके बहनोई ट्रेवेलियन का ऐसी बहसों को मोड़ देने में उल्लेखनीय योगदान रहा है |यही कारण है कि ---प्रेमचन्द के शब्दों में कहूँ तो यहाँ से गोरा जौन तो गया पर उसी तरह का काला गोविन्द उनकी जगह पर बैठ गया |जिसमें खोयी और गंवाई हुई मौलिकता को लाने का साहस ही नहीं था |जो अंगरेजी ज्ञान—विज्ञान का इतना कायल हो चुका था कि शायद यह जरूरत ही नहीं समझता था कि देशी भाषाओं में कुछ काम करने की जरूरत है |अंगरेजी के माध्यम से वे जन—राज की बजाय अपने वर्ग का राज आसानी से कायम रख सकते थे |हिंदी और देशी भाषाओं के शासन---प्रशासन में दखल होने का मतलब था देश की सामान्य जनता की दखल और पारदर्शिता –स्वच्छता की संभावनाओं को बढ़ावा | अंगरेजी के नाम पर सब कुछ जनता से आसानी से छिपाया जा सकता है |इसलिए चुनौती इस बात की नहीं है कि हिंदी में आधुनिक ज्ञान—विज्ञान की शब्दावली नहीं है |यह नहीं है वह नहीं है |यह अभाव है वह अभाव है | यह कमजोरी है वह कमजोरी है |सबसे बड़ी कमजोरी है हिंदी और उस जैसी देशी भाषा भाषियों की अजागरूकता , गरीबी और लोकतांत्रिक नैतिकता से दूरी होना और इस समुदाय के मध्य वर्ग का बेहद अवसरवादी होना |सबसे बड़ी कमजोरी है हिंदी समाज (जाति) का कई सूबों में विभाजित होना |देशीभाषा के लिए आन्दोलनकारियों का उदासीन होते चले जाना और नव उदारवादी अर्थव्यवस्था तथा निजीकरण (वैश्वीकरण ) की जकड़बंदी |
      जहां तक साहित्य का सवाल है साहित्य के मामले में हिंदी कहीं भी पिछड़ेपन का शिकार नहीं है |उसके साहित्य में आज तक का आधुनिक बोध मौजूद है |उसकी कविता, कथा साहित्य, आलोचना आदि विधाएं आज विश्व की किसी भी भाषा के साहित्य से शायद ही पीछे हों |चिंतन के मामले में भी उसने सिद्ध कर दिया है कि वह पूरी तरह से समर्थ ही नहीं एक प्रवहमान भाषा है |लोकतंत्र को धारण और वहन करने में वह पूरी तरह से समर्थ है और यह काम उसने दो शताब्दियों से भी कम समय में पूरा कर लिया है |हिंदी कोई अशक्त और कमजोर भाषा नहीं है |उसने सिद्ध कर दिया है कि वह अकेली भाषा है जो देश को अपनी बहन भाषाओं के साथ मिलकर एकता के सूत्र में जोड़ सकती है |आज़ादी की लड़ाई के प्रमुख नेता महात्मा गांधी ने हिंदी के इस महत्त्व को खुले मन से स्वीकारा है |हिंदी के माध्यम से देश ने आज़ादी की लम्बी लड़ाई औपनिवेशिक ताकतों से लड़ी है |१८५७ का पहला स्वाधीनता संग्राम तो हुआ ही हिंदी प्रदेशों में हिंदी भूमि पर |लेकिन जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि ज्ञान---विज्ञान में अठारहवी सदी  से ही अंगरेजी  शासकों की भाषा नीति से देश की समस्त भाषाओं को अंधी कोठारी में धकेला गया |अंगरेजी शासक जानते थे कि जिस देश को उसकी भाषा---बोली से महरूम कर दिया जाता है , वह राष्ट्र गूंगा हो जाता है |उनके लगभग दो सौ साल के शासन काल में देश पूरी तरह से एक गूंगे राष्ट्र की तरह रहा |उसने पहले जब अपनी भाषा में बोलने की कोशिश की तो उसमें वे विजय हासिल न कर सके किन्तु उसी से उन्होंने जब दूसरी बार बोने का प्रयास किया तो अंग्रेजों को यहाँ से जाना पडा |कोई राष्ट्र जब अपनी भाषा बोलना सीख जाता है तो फिर वह पराधीन नहीं रह सकता  | इसीलिये कोई भी शासक वर्ग सबसे पहले जनभाषा के मार्ग को अवरुद्ध करता है | यही अंग्रेजों ने किया और इसी परम्परा को आज तक धोया जा रहा है |अपना काम चलाने  और देश को आंतरिक तौर पर गुलाम बनाए रखने के लिए जो नीति अंग्रेज शासकों ने  बनायी , उस इतिहास को जाने बिना हम असली चुनौती को जान ही नहीं सकते | क्योंकि उस इतिहास का वजन हम आज तक उतार नहीं सके हैं |
यद्यपि  यह चुनौती सभी देश भाषाओं के साथ रही है |जो भाषा आधुनिक ज्ञान---विज्ञान समृद्ध नहीं होगी ,उसके सामने चुनौती के अलावा और क्या होगा ?

डा जीवन सिंह
1/14 अरावली विहार
अलवर ---301002
राजस्थान
Mob---09785010072

            





जची चंगेरी खूब

दोहे की खासियत है कि इसमें थोड़े अल्फाजों में कोई बड़ी या गहरी बात कहनी पड़ती है फिर भी यह जरूरी नहीं है कि हमेशा बड़ी बात ही कही जा सके |छोटी छोटी बातों को कहने के लिए भी दोहे को खूब काम में लिया गया है |दरअसल दोहे का औजूर बड़ा नहीं है |चार चरणों का छोटा सा छंद है पर कई बार ग़ज़ल के शे,र से टक्कर लेता है |इसके पहले चरण में तेरह  और दूसरे  में ग्यारह मात्राएँ होती हैं |तीसरे में फिर तेरह और चौथे चरण में ग्यारह मात्राएँ होती हैं |मेवाती के लोक कवियों ने अपने मन की मौज में दोहे लिखे है इस वजह से कई जगह पर मात्राओं का गणित गड़बड़ा गया है |मेवाती का दूहा अपनी कहन  के अनुसार लंबा भी हो जाता है |मीरासी अपने संगीत के हिसाब से उसे लंबा कर देते हैं | बहरहाल मैंने मेवाती में जो दोहे कहे हैं उनमें इसके शास्त्र का ध्यान रखा है कि वे मात्राओं के अनुसार रहें |इस बात का भी ध्यान रहे कि दोहों में पुराने जमाने की बातें भी आज के हिसाब से आएं क्योंकि हमारी दुनिया आज की दुनिया है |हमारी आँखें कभी पीछे की तरफ नहीं देखती |वे हमेशा आगे की ओर देखती हैं और आगे की ओर ही चलती हैं |कभी कभी जरूरत के अनुसार पीछे मुड़कर जरूर देख लिया जाता है |अतीत मोहक अवश्य होता है किन्तु व्यक्ति का काम हमेशा वर्तमान से चलता  है |वैसे भी पिछलग्गू को ज्यादा अच्छा नहीं माना जाता |
कोशिश रही है कि मेवाती जीवन की वे ख़ास बातें दोहों में जरूर आयें जिनसे आज का मेवाती युवक वाकिफ नहीं  है | अपने इलाके से परिचित रहने के लिए भी दोहों को कहा गया है |बड़े लोग कहते हैं की जो अपने गाँव---इलाके का नहीं वह दुनिया का कैसे हो सकता है |पहले जब हम खुद को जान लेते हैं तभी दूसरे और दुनिया को जान पाते हैं |जिसने खुद को नहीं जाना कि वह क्या है , वह दूसरे को कैसे जानेगा ?जानने की इस प्रक्रिया में दोहों को कहना होता है ?
मेवाती लोक जीवन में इंधन की समस्या को पशुओं के गोबर को थेप कर दूर किया  जाता है |गोबर के ऊपले महिलाएं थेपती हैं और उनकी सुरक्षा के लिए बटेवडा बनाती हैं जिसे भयाना मेवात की तरफ ब्रज से सटे इलाके में बिटौरा कहते हैं |बटेवडा यानी बिटौरा |एक दोहा मेवात की इस कला पर है -----

पहले थेपा ऊपला, फिर दिनों आकार |

घणी सुतेमन सरूपी , रही बिटौरा ढार ||१||


बिटौरा को लेकर मेवात में एक कहावत बन गयी है ---करकेंटा  की चोट बिटौरा पे | इसी कहावत को ध्यान में रखकर एक दोहा कुछ इस तरह से बन गया -------

 

ठौंडा की खिदमत कराँ ,धरां गरीबी खोट |

सदा बिटौरा पे रहे , किरकेंटा की चोट |२||


मेवात में गर्मियों के दिनों में ठालप में अनेक तरह के कलात्मक बीज़णा बनाने की परम्परा लम्बे समय से चली आ रही है | मेवात की महिलाएं इस काम में बहुत दक्ष और कुशल होती हैं |वे इसी तरह चंगेरी भी बनाती है जो रोटी रखने से लगाकर कई तरह के काम आती हैं |कैसे आश्चर्य की बात है कि यह उन हाथों की कला है जिनसे वे दूब खोदती हैं |इसको ध्यान में रखते हुए कहा है --------

रंगबिरंगा बीजणा , जची चंगेरी खूब |

उन हाथन की कला हा , जिनसू  खोदी दूब  ||३||


बीजणों और चंगेरी की तरह मेवात में मेवनियाँ  पहले अपना सामान और सौदा---सुलुफ खरोला , जिनको अलवर की तरफ खारी भी कहते हैं ,में लाती ले जाती थी |ये सारी बातें बतलाती हैं कि मेव समुदाय का जीवन प्रकृति के बहुत अधिक नज़दीक रहा है |बर्तन इत्यादि भी अधिकतर मिट्टी के ही होते थे |बेहद सादगी भरी जिन्दगी रही है मेव---समाज की ,जिसमें किसी तरह का कोई बनावटीपन नहीं था |अपने आदिम स्वभाव की वजह से पशुपालन मुख्य धंधा था |खरोले या खारी को याद करते हुए इस दोहे में कहा है -------

पैदल चल दी गाँव सू, तनक करी ना देर |

धरै खरोला सीस पे ,पहुची कीनानेर  ||४||


मेवात में एक कहावत है उस अवसर की जब कोई किसी तरह की परेशानी में नहीं होता तो कहता है कि मेरो पड्डा कीच में ना बंधरो है जो मैं वाकी आजीजी करूँ |लेकिन मैंने अनुभव किया है कि खेती पर निर्भर रहने वाले किसान का पड्डा हमेशा से कीचड में ही बंधा रहा है ---------

 

पीछे पड़ रा भेड़िया , पीछे लगरो  रीछ |

खेती और किसान कौ , पड्डा बंधरो कीच ||५||


                       कुछ और दोहे खेती---किसानी पर -----


कातक फसल सुहावनी उठे चैत बैसाख |

जेठ साड में जो बुबे कातक पिछले पाख ||६||


कातक आबे हाथ में  मौठ बाजरा ज्वार |

गेंहू सरसों जौ चना  , बैसाखी दमदार ||७||


उच्च चिंतन और उच्च आदर्श अपनी सहज भाषा में भी खूब किया जा सकता है और वह परम्परा के साथ नया और आधुनिक भी तो होना चाहिए |जो समाज अपने नए आदर्श नहीं गढ़ सकता और नए सपने नहीं देख सकता वह अपनी नयी और सहज भाषा भी कैसे ईजाद कर पायगा और उसमें उच्च चिंतन भी नहीं होगा |वह हमेशा पुराने के गीत ही गाता रहेगा |

Sunday, 2 August 2015

बोलचाल की कैसी भाषा ?-----------
जब आप हर बात में यह कहेंगे कि बोलचाल की भाषा में लिखो तो आजकल मध्यवर्ग के बच्चे, युवा और अभिभावक जैसी भाषा बोल रहे हैं और बुलवाना चाहते हैं उसी तरह की भाषा वे लिखेंगे भी |अंगरेजी की संज्ञाओं के साथ हिंदी की क्रियाएं तो आमतौर पर आज का मध्यवर्ग बोलने लगा है |एप्पल खा लो , बनाना खा लो जैसी भाषा तो अक्सर लोग बोलने और जोर देकर बच्चों से बुलवाने लगे हैं | एक दिन जयपुर यात्रा का प्रसंग है मैं अलवर से बस द्वारा जयपुर जा रहा था |रास्ते में सरिस्का अभ्यारण्य से बस गुजरती है |इस जंगल में बंदरों की अच्छी तादाद है ,शाखामृग हैं , खूब उछलकूद करते हैं और बन्दर घुड़की भी खूब देते हैं |खासकर यात्रियों द्वारा 'पुण्य' कमाने के उद्देश्य से डाले गए केलों को खाने के लिए मार्ग में सड़क के दोनों ओर ये शाखामृग इंतज़ार में बैठे रहते हैं |इस यात्रा में मेरे आगे वाली सीट पर एक युवा परिवार अपने बच्चों के साथ यात्रा कर रहा था |बंदरों को देखकर जैसे ही एक बच्चे ने अपनी जिज्ञासा जाहिर करते हुए बन्दर शब्द का उच्चारण किया कि पिता ने लगभग डांट लगाने के लहजे में कहा कि नहीं बच्चे बन्दर नहीं , मंकी बैठे हैं |मैं हैरत में था कि बच्चा हिंदी बोलना चाहता है किन्तु यह पिता है जो हिंदी बोलने में अपनी तौहीन समझ रहा है |अब यदि अखबार वाले , जो व्यवसाय के लिए अखबार निकाल रहे हैं किसी बड़े सदुद्देश्य के लिए नहीं , तो वे भी उसी भाषा का प्रयोग करेंगे जिसे अभिभावक चाहते हैं | यही वजह है कि हिंदी अखबारों की भाषा आज एक अजीब शोचनीय और दयनीय हालत में है वह न अंगरेजी हैं न हिंदी |एक जबरदस्त खिचडी माहौल है |यह मध्य वर्ग की बीमारी है |जो न इधर का है न उधर का |यह बीमारी संक्रामक रोग की तरह तेज़ी से फ़ैल रही है | हिंदी माध्यम के स्कूलों को उच्च आदर्श और उच्च चिंतन की भाषा के केन्द्रों के रूप में संचालित किये जाने की मुहिम चलाने की जरूरत है |इसके अलावा कोई चारा नहीं है |हिंदी माध्यम के स्कूलों में तो नैतिक शिक्षा के नाम पर न जाने क्या क्या पढ़ाया जा रहा है ?बहुत शोचनीय स्थिति है |
जनता के लेखक प्रेमचन्द ------------
कल अलवर जिले की तेज़ी से विकसित होती औद्योगिक नगरी भिवाडी में प्रेमचन्द के साहित्य और उसकी प्रासंगिकता पर यहाँ के कुछ मित्रों की संस्था ---अभिव्यक्ति-----ने एक संगोष्ठी का आयोजन किया जिसमें अलवर से जुगमंदिर तायल , रेवती रमण शर्मा , त्रिलोक शर्मा और उनके साथ मैं भी शामिल हुआ |अच्छा यह जानकर लगा कि यहाँ लगभग पूरा भारत अपनी एकता के ताने बाने में गुंथा उपस्थित होता है |दोस्तों का एक निराला संसार ,|प्रेमचंद के साहित्य ने उस सूत्र को और मजबूत किया ,इसलिए उन्होंने इसको अपनी परम्परा बना लिया है |और कुछ मनाएं या न मनाएं प्रेमचन्द दिवस जरूर मनाते हैं |इस बार इस आयोजन में प्रेमचंद के इस संस्मरण को तायल जी ने यहाँ खासतौर से सुनाया कि अलवर के तत्कालीन महाराजा जय सिंह को उनका कर्मभूमि उपन्यास बहुत पसंद आया |उन्होंने उनको तत्काल अलवर आने का निमंत्रण दिया कि ४०० रुपये माहवार वेतन , कोठी---बंगला, नौकर चाकर सब रहेंगे लेकिन प्रेमचंद जी ने यहाँ आने से साफ़ इनकार कर दिया |शिवरानी जी ने लिखा है कि जब मैंने अपने पति प्रेमचन्द से पूछा कि उन्होंने ऐसा क्यों किया तो प्रेम चंद जी ने उत्तर दिया कि वे जनता के लेखक रहना चाहते हैं किसी महाराजा के नहीं |

Saturday, 1 August 2015

यह समय
कितना खतरनाक है
जब सांप समूह बनाकर
घर में घुसने की कोशिश में हैं
यह समय बिखरे रहने
और अपनी अपनी ढपली बजाने का नहीं
बुहारी की तरह
बंधकर रहने का है
कि गंदगी को तुरंत
झाड़ा जा सके
यह बिखरे रहने का समय नहीं
परीक्षा की घड़ी है
बिखरे रहेंगे
तो मारे जायेंगे |