बोलचाल की कैसी भाषा ?-----------
जब आप हर बात में यह कहेंगे कि बोलचाल की भाषा में लिखो तो आजकल मध्यवर्ग के बच्चे, युवा और अभिभावक जैसी भाषा बोल रहे हैं और बुलवाना चाहते हैं उसी तरह की भाषा वे लिखेंगे भी |अंगरेजी की संज्ञाओं के साथ हिंदी की क्रियाएं तो आमतौर पर आज का मध्यवर्ग बोलने लगा है |एप्पल खा लो , बनाना खा लो जैसी भाषा तो अक्सर लोग बोलने और जोर देकर बच्चों से बुलवाने लगे हैं | एक दिन जयपुर यात्रा का प्रसंग है मैं अलवर से बस द्वारा जयपुर जा रहा था |रास्ते में सरिस्का अभ्यारण्य से बस गुजरती है |इस जंगल में बंदरों की अच्छी तादाद है ,शाखामृग हैं , खूब उछलकूद करते हैं और बन्दर घुड़की भी खूब देते हैं |खासकर यात्रियों द्वारा 'पुण्य' कमाने के उद्देश्य से डाले गए केलों को खाने के लिए मार्ग में सड़क के दोनों ओर ये शाखामृग इंतज़ार में बैठे रहते हैं |इस यात्रा में मेरे आगे वाली सीट पर एक युवा परिवार अपने बच्चों के साथ यात्रा कर रहा था |बंदरों को देखकर जैसे ही एक बच्चे ने अपनी जिज्ञासा जाहिर करते हुए बन्दर शब्द का उच्चारण किया कि पिता ने लगभग डांट लगाने के लहजे में कहा कि नहीं बच्चे बन्दर नहीं , मंकी बैठे हैं |मैं हैरत में था कि बच्चा हिंदी बोलना चाहता है किन्तु यह पिता है जो हिंदी बोलने में अपनी तौहीन समझ रहा है |अब यदि अखबार वाले , जो व्यवसाय के लिए अखबार निकाल रहे हैं किसी बड़े सदुद्देश्य के लिए नहीं , तो वे भी उसी भाषा का प्रयोग करेंगे जिसे अभिभावक चाहते हैं | यही वजह है कि हिंदी अखबारों की भाषा आज एक अजीब शोचनीय और दयनीय हालत में है वह न अंगरेजी हैं न हिंदी |एक जबरदस्त खिचडी माहौल है |यह मध्य वर्ग की बीमारी है |जो न इधर का है न उधर का |यह बीमारी संक्रामक रोग की तरह तेज़ी से फ़ैल रही है | हिंदी माध्यम के स्कूलों को उच्च आदर्श और उच्च चिंतन की भाषा के केन्द्रों के रूप में संचालित किये जाने की मुहिम चलाने की जरूरत है |इसके अलावा कोई चारा नहीं है |हिंदी माध्यम के स्कूलों में तो नैतिक शिक्षा के नाम पर न जाने क्या क्या पढ़ाया जा रहा है ?बहुत शोचनीय स्थिति है |
जब आप हर बात में यह कहेंगे कि बोलचाल की भाषा में लिखो तो आजकल मध्यवर्ग के बच्चे, युवा और अभिभावक जैसी भाषा बोल रहे हैं और बुलवाना चाहते हैं उसी तरह की भाषा वे लिखेंगे भी |अंगरेजी की संज्ञाओं के साथ हिंदी की क्रियाएं तो आमतौर पर आज का मध्यवर्ग बोलने लगा है |एप्पल खा लो , बनाना खा लो जैसी भाषा तो अक्सर लोग बोलने और जोर देकर बच्चों से बुलवाने लगे हैं | एक दिन जयपुर यात्रा का प्रसंग है मैं अलवर से बस द्वारा जयपुर जा रहा था |रास्ते में सरिस्का अभ्यारण्य से बस गुजरती है |इस जंगल में बंदरों की अच्छी तादाद है ,शाखामृग हैं , खूब उछलकूद करते हैं और बन्दर घुड़की भी खूब देते हैं |खासकर यात्रियों द्वारा 'पुण्य' कमाने के उद्देश्य से डाले गए केलों को खाने के लिए मार्ग में सड़क के दोनों ओर ये शाखामृग इंतज़ार में बैठे रहते हैं |इस यात्रा में मेरे आगे वाली सीट पर एक युवा परिवार अपने बच्चों के साथ यात्रा कर रहा था |बंदरों को देखकर जैसे ही एक बच्चे ने अपनी जिज्ञासा जाहिर करते हुए बन्दर शब्द का उच्चारण किया कि पिता ने लगभग डांट लगाने के लहजे में कहा कि नहीं बच्चे बन्दर नहीं , मंकी बैठे हैं |मैं हैरत में था कि बच्चा हिंदी बोलना चाहता है किन्तु यह पिता है जो हिंदी बोलने में अपनी तौहीन समझ रहा है |अब यदि अखबार वाले , जो व्यवसाय के लिए अखबार निकाल रहे हैं किसी बड़े सदुद्देश्य के लिए नहीं , तो वे भी उसी भाषा का प्रयोग करेंगे जिसे अभिभावक चाहते हैं | यही वजह है कि हिंदी अखबारों की भाषा आज एक अजीब शोचनीय और दयनीय हालत में है वह न अंगरेजी हैं न हिंदी |एक जबरदस्त खिचडी माहौल है |यह मध्य वर्ग की बीमारी है |जो न इधर का है न उधर का |यह बीमारी संक्रामक रोग की तरह तेज़ी से फ़ैल रही है | हिंदी माध्यम के स्कूलों को उच्च आदर्श और उच्च चिंतन की भाषा के केन्द्रों के रूप में संचालित किये जाने की मुहिम चलाने की जरूरत है |इसके अलावा कोई चारा नहीं है |हिंदी माध्यम के स्कूलों में तो नैतिक शिक्षा के नाम पर न जाने क्या क्या पढ़ाया जा रहा है ?बहुत शोचनीय स्थिति है |
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