Monday 3 August 2015



जची चंगेरी खूब

दोहे की खासियत है कि इसमें थोड़े अल्फाजों में कोई बड़ी या गहरी बात कहनी पड़ती है फिर भी यह जरूरी नहीं है कि हमेशा बड़ी बात ही कही जा सके |छोटी छोटी बातों को कहने के लिए भी दोहे को खूब काम में लिया गया है |दरअसल दोहे का औजूर बड़ा नहीं है |चार चरणों का छोटा सा छंद है पर कई बार ग़ज़ल के शे,र से टक्कर लेता है |इसके पहले चरण में तेरह  और दूसरे  में ग्यारह मात्राएँ होती हैं |तीसरे में फिर तेरह और चौथे चरण में ग्यारह मात्राएँ होती हैं |मेवाती के लोक कवियों ने अपने मन की मौज में दोहे लिखे है इस वजह से कई जगह पर मात्राओं का गणित गड़बड़ा गया है |मेवाती का दूहा अपनी कहन  के अनुसार लंबा भी हो जाता है |मीरासी अपने संगीत के हिसाब से उसे लंबा कर देते हैं | बहरहाल मैंने मेवाती में जो दोहे कहे हैं उनमें इसके शास्त्र का ध्यान रखा है कि वे मात्राओं के अनुसार रहें |इस बात का भी ध्यान रहे कि दोहों में पुराने जमाने की बातें भी आज के हिसाब से आएं क्योंकि हमारी दुनिया आज की दुनिया है |हमारी आँखें कभी पीछे की तरफ नहीं देखती |वे हमेशा आगे की ओर देखती हैं और आगे की ओर ही चलती हैं |कभी कभी जरूरत के अनुसार पीछे मुड़कर जरूर देख लिया जाता है |अतीत मोहक अवश्य होता है किन्तु व्यक्ति का काम हमेशा वर्तमान से चलता  है |वैसे भी पिछलग्गू को ज्यादा अच्छा नहीं माना जाता |
कोशिश रही है कि मेवाती जीवन की वे ख़ास बातें दोहों में जरूर आयें जिनसे आज का मेवाती युवक वाकिफ नहीं  है | अपने इलाके से परिचित रहने के लिए भी दोहों को कहा गया है |बड़े लोग कहते हैं की जो अपने गाँव---इलाके का नहीं वह दुनिया का कैसे हो सकता है |पहले जब हम खुद को जान लेते हैं तभी दूसरे और दुनिया को जान पाते हैं |जिसने खुद को नहीं जाना कि वह क्या है , वह दूसरे को कैसे जानेगा ?जानने की इस प्रक्रिया में दोहों को कहना होता है ?
मेवाती लोक जीवन में इंधन की समस्या को पशुओं के गोबर को थेप कर दूर किया  जाता है |गोबर के ऊपले महिलाएं थेपती हैं और उनकी सुरक्षा के लिए बटेवडा बनाती हैं जिसे भयाना मेवात की तरफ ब्रज से सटे इलाके में बिटौरा कहते हैं |बटेवडा यानी बिटौरा |एक दोहा मेवात की इस कला पर है -----

पहले थेपा ऊपला, फिर दिनों आकार |

घणी सुतेमन सरूपी , रही बिटौरा ढार ||१||


बिटौरा को लेकर मेवात में एक कहावत बन गयी है ---करकेंटा  की चोट बिटौरा पे | इसी कहावत को ध्यान में रखकर एक दोहा कुछ इस तरह से बन गया -------

 

ठौंडा की खिदमत कराँ ,धरां गरीबी खोट |

सदा बिटौरा पे रहे , किरकेंटा की चोट |२||


मेवात में गर्मियों के दिनों में ठालप में अनेक तरह के कलात्मक बीज़णा बनाने की परम्परा लम्बे समय से चली आ रही है | मेवात की महिलाएं इस काम में बहुत दक्ष और कुशल होती हैं |वे इसी तरह चंगेरी भी बनाती है जो रोटी रखने से लगाकर कई तरह के काम आती हैं |कैसे आश्चर्य की बात है कि यह उन हाथों की कला है जिनसे वे दूब खोदती हैं |इसको ध्यान में रखते हुए कहा है --------

रंगबिरंगा बीजणा , जची चंगेरी खूब |

उन हाथन की कला हा , जिनसू  खोदी दूब  ||३||


बीजणों और चंगेरी की तरह मेवात में मेवनियाँ  पहले अपना सामान और सौदा---सुलुफ खरोला , जिनको अलवर की तरफ खारी भी कहते हैं ,में लाती ले जाती थी |ये सारी बातें बतलाती हैं कि मेव समुदाय का जीवन प्रकृति के बहुत अधिक नज़दीक रहा है |बर्तन इत्यादि भी अधिकतर मिट्टी के ही होते थे |बेहद सादगी भरी जिन्दगी रही है मेव---समाज की ,जिसमें किसी तरह का कोई बनावटीपन नहीं था |अपने आदिम स्वभाव की वजह से पशुपालन मुख्य धंधा था |खरोले या खारी को याद करते हुए इस दोहे में कहा है -------

पैदल चल दी गाँव सू, तनक करी ना देर |

धरै खरोला सीस पे ,पहुची कीनानेर  ||४||


मेवात में एक कहावत है उस अवसर की जब कोई किसी तरह की परेशानी में नहीं होता तो कहता है कि मेरो पड्डा कीच में ना बंधरो है जो मैं वाकी आजीजी करूँ |लेकिन मैंने अनुभव किया है कि खेती पर निर्भर रहने वाले किसान का पड्डा हमेशा से कीचड में ही बंधा रहा है ---------

 

पीछे पड़ रा भेड़िया , पीछे लगरो  रीछ |

खेती और किसान कौ , पड्डा बंधरो कीच ||५||


                       कुछ और दोहे खेती---किसानी पर -----


कातक फसल सुहावनी उठे चैत बैसाख |

जेठ साड में जो बुबे कातक पिछले पाख ||६||


कातक आबे हाथ में  मौठ बाजरा ज्वार |

गेंहू सरसों जौ चना  , बैसाखी दमदार ||७||


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