Monday 3 August 2015



आधुनिक समय में हिंदी की चुनौतियां


डा जीवन सिंह



हिंदी के सामने हमेशा से ख़ास चुनौती आधुनिक तत्त्व बोध और अपनी जगह हासिल करने की  रही है जिसमें वह सबसे ज्यादा पिछडती रही है |उसके अनेक ऐतिहासिक ---सामाजिक---आर्थिक---राजनीतिक  कारण रहे हैं |पहला  मुख्य ऐतिहासिक कारण भारतीय जन का उसकी अपनी  सत्ता से बेदखल होना रहा है |हमारा समाज ऐतिहासिक तौर पर अपनी स्वाभाविक गति से दूर हटता चला गया है और इसे कई ऐसी बाहरी सत्ताओं का सामना करना पडा है जो अपने साथ अपनी प्रभुता ही नहीं वरन  अपना सांस्कृतिक तामझाम भी साथ लेकर भारत में आई ,जिन्होंने यहाँ आकर भारत की स्वाभाविक गति को अच्छे और बुरे दोनों अर्थों में प्रभावित किया |बुरे तौर पर ज्यादा, अच्छे तौर पर कम क्योंकि  पराधीनता कैसी भी क्यों न हो , हमेशा दुखद होती है |कुछ लोग अंग्रेजों की गुलामी को खासतौर से  देश के लिए वरदान जैसा मानते हैं किन्तु इतिहास---गति से मालूम है कि किस तरह से वे यहाँ के समाज की विभाजित एकता में गहरी दरार डालकर   अपना उल्लू सीधा करते थे |जैसा कि सब जानते हैं कि वे यहाँ आये थे व्यापारी बनकर किन्तु लगातार अपनी कुटिल चालों और यहाँ की अपनी बुनियादी कमजोरियों को समझते हुए वे व्यापारी यहाँ के शासक बन गए |चूंकि भारत की पूंजी के बल पर उन्होंने अपने देश का औद्योगिक—तकनीकी विकास किया जिसकी ताकत से वे लगभग दो शताब्दियों तक यहाँ जमे रहे |यह कालखंड भारतीय इतिहास  का सबसे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण हिस्सा है जिसमें भारतीय समाज ने अपमी मौलिकता को लगभग खो दिया |मौलिकता के नाम पर यहाँ शेष रहा केवल रुढ़िवाद और दकियानूसीपन |और नवीनता तथा आधुनिता के नाम पर हाथ लगी विदेशी भाषा और विदेशी मानसिकता |अंग्रेजों के दो सौ साल के शासन ने यहाँ उनका एक बेहद प्रशंसक वर्ग तैयार कर दिया था जो सांस्कृतिक तौर पर पूरी तरह से उनका गुलाम हो चुका था , जो भारत की सामान्य जनता के दुःख---दर्दों से किताबी रिश्ता ज्यादा रखता था और जिसने उसके दुःख दर्दों को भीतर से महसूस करने का नाटक ज्यादा किया था |इस वर्ग में  महात्मा गांधी जैसे लोग अपवाद की तरह थे | जो अपने कुछ दकियानूसीपन के बावजूद मैलिक ढंग से सोचने की क्षमता रखते थे |लेकिन आज़ादी मिलने के बाद विभाजन होने की वजह से वे इतने कमजोर हो चुके थे कि कर कुछ भी न सकते थे |उनकी नैतिक ताकत का असर इस समय तक लगभग ख़त्म हो चुका था | उनको जो करना था वह काम वे पूरा कर चुके थे |उनके  पीछे उनके जो अनुयायी थे वे उनको सांस्थानिक तौर पर ज़िंदा रखने के काम में लग गए थे |भाषा---संस्कृति का सवाल दकियानूसी वर्ग के हाथ में चला गया था जो हिंदी को आधुनिक बोध से संपन्न करने की बजाय केवल नारों के बल पर हिंदी को स्थापित करना चाहते थे |वैसे भी इस समय तक हिंदी के वास्तविक और प्रभावी क्षमतासंपन्न कितने से लोग रह गए थे | सत्ता मिल जाने के बाद कितने ही लोग थे जो अपनी बात से पीछे हट गए थे |उसी का परिणाम था कि देश में फिर से अंग्रेजों का नहीं , अंगरेजी का वर्चस्व कायम हो गया था |
अठारहवी सदी के मध्य में काबिज हुई अंगरेजी हुकूमत ने वस्तुतः देश की बुनियाद को क्षत---विक्षत कर दिया था |उन्होंने अस्वाभाविक तौर पर यहाँ के देशी सामाजिक----आर्थिक---सांस्कृतिक प्रवाह को इस तरह से अवरुद्ध किया कि आज तक देश का सामान्य मेहनतकश वर्ग उसका दुष्परिणाम भोग रहा है |हुआ यह कि वे जब यहाँ से गए तब तक देश में अपना समर्थक  एक ऐसा प्रभुतासंपन्न अंग्रेजीदां वर्ग तैयार करके गए थे जिसने उनके जाने के बाद यहाँ भारतीय सत्ता को हासिल किया और वे अंग्रजों की नीतियों को प्रगतिशील मानकर सामान्यतया उनपर ही चलते  रहे | देश को आज़ादी तो जरूर मिली पर वह इसकी पुरानी  बुनियाद को बदल न सकी | लोकतंत्र के नए भवन में ऐसा शायद ही कुछ हो जो भारत की संस्कृति को पुरातनता से मुक्ति दिला सके |क्या वजह है कि स्वतंत्र भारत में जितना विकास होता गया है उतना ही जातिवाद और साम्प्रादायिकता दोनों अपनी प्रभुता और पकड में वृद्धि करते चले गए हैं  ? कदाचित उस समय के प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरु को अपनी भाषाओं की क्षमताओं पर ज्यादा भरोसा नहीं था |जरूरत थी देशी भाषाओं को सब तरह से आधुनिक बोध से संपन्न बनाने की  |ज्ञान---विज्ञान और समाज विज्ञान आदि के स्तर पर मौलिक अनुसंधान से आपूरित करने की  |लेकिन काम हुआ सिर्फ अनुवाद का | कोई भाषा किसी विदेशी भाषा के ज्ञान के अनुवाद से अपनी मौलिकता अर्जित नहीं कर सकती |मौलिकता के लिए मौलिक तौर पर सोचना पड़ता है |जिनकी हिंदी में ही नहीं लगभग सभी देशी भाषाओं में ऐतिहासिक वजह से कमी थी |यह काम अंग्रेज शासकों ने जान बूझकर किया था |उन्नीसवी सदी के आरम्भ से लगाकर मध्य तक उन्होंने भाषा और शिक्षा के सवालों पर बहुत सोचा था जिससे परिणाम निकाला था कि अपनी यानी विदेशी भाषा में शिक्षा देकर ही इस देश की जनता को लम्बे समय तक गुलाम बनाया जा सकता है |कहना न होगा कि लार्ड मेकाले और उसके बहनोई ट्रेवेलियन का ऐसी बहसों को मोड़ देने में उल्लेखनीय योगदान रहा है |यही कारण है कि ---प्रेमचन्द के शब्दों में कहूँ तो यहाँ से गोरा जौन तो गया पर उसी तरह का काला गोविन्द उनकी जगह पर बैठ गया |जिसमें खोयी और गंवाई हुई मौलिकता को लाने का साहस ही नहीं था |जो अंगरेजी ज्ञान—विज्ञान का इतना कायल हो चुका था कि शायद यह जरूरत ही नहीं समझता था कि देशी भाषाओं में कुछ काम करने की जरूरत है |अंगरेजी के माध्यम से वे जन—राज की बजाय अपने वर्ग का राज आसानी से कायम रख सकते थे |हिंदी और देशी भाषाओं के शासन---प्रशासन में दखल होने का मतलब था देश की सामान्य जनता की दखल और पारदर्शिता –स्वच्छता की संभावनाओं को बढ़ावा | अंगरेजी के नाम पर सब कुछ जनता से आसानी से छिपाया जा सकता है |इसलिए चुनौती इस बात की नहीं है कि हिंदी में आधुनिक ज्ञान—विज्ञान की शब्दावली नहीं है |यह नहीं है वह नहीं है |यह अभाव है वह अभाव है | यह कमजोरी है वह कमजोरी है |सबसे बड़ी कमजोरी है हिंदी और उस जैसी देशी भाषा भाषियों की अजागरूकता , गरीबी और लोकतांत्रिक नैतिकता से दूरी होना और इस समुदाय के मध्य वर्ग का बेहद अवसरवादी होना |सबसे बड़ी कमजोरी है हिंदी समाज (जाति) का कई सूबों में विभाजित होना |देशीभाषा के लिए आन्दोलनकारियों का उदासीन होते चले जाना और नव उदारवादी अर्थव्यवस्था तथा निजीकरण (वैश्वीकरण ) की जकड़बंदी |
      जहां तक साहित्य का सवाल है साहित्य के मामले में हिंदी कहीं भी पिछड़ेपन का शिकार नहीं है |उसके साहित्य में आज तक का आधुनिक बोध मौजूद है |उसकी कविता, कथा साहित्य, आलोचना आदि विधाएं आज विश्व की किसी भी भाषा के साहित्य से शायद ही पीछे हों |चिंतन के मामले में भी उसने सिद्ध कर दिया है कि वह पूरी तरह से समर्थ ही नहीं एक प्रवहमान भाषा है |लोकतंत्र को धारण और वहन करने में वह पूरी तरह से समर्थ है और यह काम उसने दो शताब्दियों से भी कम समय में पूरा कर लिया है |हिंदी कोई अशक्त और कमजोर भाषा नहीं है |उसने सिद्ध कर दिया है कि वह अकेली भाषा है जो देश को अपनी बहन भाषाओं के साथ मिलकर एकता के सूत्र में जोड़ सकती है |आज़ादी की लड़ाई के प्रमुख नेता महात्मा गांधी ने हिंदी के इस महत्त्व को खुले मन से स्वीकारा है |हिंदी के माध्यम से देश ने आज़ादी की लम्बी लड़ाई औपनिवेशिक ताकतों से लड़ी है |१८५७ का पहला स्वाधीनता संग्राम तो हुआ ही हिंदी प्रदेशों में हिंदी भूमि पर |लेकिन जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि ज्ञान---विज्ञान में अठारहवी सदी  से ही अंगरेजी  शासकों की भाषा नीति से देश की समस्त भाषाओं को अंधी कोठारी में धकेला गया |अंगरेजी शासक जानते थे कि जिस देश को उसकी भाषा---बोली से महरूम कर दिया जाता है , वह राष्ट्र गूंगा हो जाता है |उनके लगभग दो सौ साल के शासन काल में देश पूरी तरह से एक गूंगे राष्ट्र की तरह रहा |उसने पहले जब अपनी भाषा में बोलने की कोशिश की तो उसमें वे विजय हासिल न कर सके किन्तु उसी से उन्होंने जब दूसरी बार बोने का प्रयास किया तो अंग्रेजों को यहाँ से जाना पडा |कोई राष्ट्र जब अपनी भाषा बोलना सीख जाता है तो फिर वह पराधीन नहीं रह सकता  | इसीलिये कोई भी शासक वर्ग सबसे पहले जनभाषा के मार्ग को अवरुद्ध करता है | यही अंग्रेजों ने किया और इसी परम्परा को आज तक धोया जा रहा है |अपना काम चलाने  और देश को आंतरिक तौर पर गुलाम बनाए रखने के लिए जो नीति अंग्रेज शासकों ने  बनायी , उस इतिहास को जाने बिना हम असली चुनौती को जान ही नहीं सकते | क्योंकि उस इतिहास का वजन हम आज तक उतार नहीं सके हैं |
यद्यपि  यह चुनौती सभी देश भाषाओं के साथ रही है |जो भाषा आधुनिक ज्ञान---विज्ञान समृद्ध नहीं होगी ,उसके सामने चुनौती के अलावा और क्या होगा ?

डा जीवन सिंह
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अलवर ---301002
राजस्थान
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