Thursday, 6 August 2015

समय का शिशु
हमेशा
मुझसे पूछता है कि
क्या तुम जानते हो कि
कहाँ जाना है
और कैसे जाना है
किनका साथ लेना है
और किनका देना है
शिशु का उत्तर मेरे पास नहीं
सवाल के जबाव में
मैं खुद से सवाल पूछने लगता हूँ
उत्तर कभी नहीं तलाशता
दोष गिनाने लगता हूँ
उनके
जो कर्मरत हैं
जिन्होंने सुबह सुबह सड़क को बुहार कर
साफ़ किया है
जिन्होंने दूसरों के वस्त्रों पर
प्रेस की है
जिन्होंने खेत की माटी को
अपनी साँसों की
दीवट बनाया है
वे मेरी कसौटी से अभी बहुत दूर हैं
जिनके कपडे मैले हैं
जिनके बदन से पसीने की गंध आती है
मेरी कसौटी में वे कहाँ हैं
इस तरह से मैं अपना कद
बड़ा करता हूँ
क्योंकि यहाँ कोई ऐसी कसौटी नहीं
जो नागरिकों को सिर्फ बाहर से
उनके चेहरे देखकर नहीं
भीतर से जांच सके
आत्मा के अन्धकार की थाह ला सके
इसी उधेड़ बुन में
सारा समय सिरा जाता है
जैसे बरसात का पानी
किनारे और गहराई न हों तो
बह जाता है |

No comments:

Post a Comment