हिंदी का सवाल लोकतंत्र से जुडा है । बिना निजभाषा के कैसा लोकतंत्र ? वामपंथी आन्दोलन
की सबसे बड़ी दिक्कत ही इस प्रश्न पर रही है । बंगाल में उसका आधार बांग्ला
रही और केरल में मलयालम , इसी वजह से गरीब वर्ग तक उसकी जड़ें जा पहुँची ।
हिन्दी क्षेत्र के लोग अपने सोच को अपनी भाषा में जाहिर नहीं कर पाए ।
साहित्य में अपनी भाषा में काम हुआ । दूसरे ज्ञान- अनुशासनों में गंभीर और
मौलिक काम अंगरेजी में ही होता रहा । यह जरूरत मध्य और निम्न वर्ग की थी ।
उच्च वर्ग ने अपना अलग समाज बनाया और अपने लिए अलग से सुविधाएं विकसित कर
ली । यही देश का शासक वर्ग बना । इसी की भाषा और संस्कृति की एक अलग धारा
बनती रही । आज हाल यह है कि यदि अंगरेजी नहीं आती तो आप कहीं के नहीं हैं ।
अब गांधी की याद भी किसी को नहीं आती । महान शहीद भगत सिंह की वे बातें भी
लोगों को याद नहीं जो उन्होंने निज -भाषा के बारे में कही हैं ।बाजारवादी व्यवस्था ने माहौल को बहुत बिगाड़ दिया है ।
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