प्रेम चंद , प्रेमचंद हैं और टैगोर , टैगोर । दोनों में लगातार बदलाव और विकास हुआ है । दोनों में ही लगातार औपनिवेशिकता का विरोध अपने अपने स्वभाव और परिस्थितियों में विकसित हुआ है । बंगाल में एक समय ऐसा भी रहा है जब वह समाज अंगरेजी शिक्षा और
सभ्यता की आधुनिकता से प्रभावित रहा । १ ८ ५ ७ की स्मृतियों की वजह से
हिंदी क्षेत्रों में वह बात नहीं रही, न अंगरेजी शासन की तरफ से न हिंदी
जनता की तरफ से । दोनों ही एक दूसरे के प्रति संदेह रखते थे । लेकिन बंगाल
तेजी से बदला ,जब अंग्रेजों ने उसको दो टुकड़ों में विभाजित करके अपनी चाल
चली । हमको इन सारी परिस्थितियों का ध्यान रखना होगा । अन्यथा हम प्रेम चंद
और टैगोर दोनों के प्रति न्याय नहीं कर पायेंगे । दोनों ही भारतीय समाज के
महान और क्लैसिक रचनाकारों में आते हैं । टैगोर महान हैं अपनी सघन और गहरी रचनाशीलता से न कि नोबल पुरस्कार से । वह न भी मिलता तो भी उनकी महत्ता में कोई फर्क नहीं पड़ता ।
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