लोक के बीच जाकर
कभी कभार
टांग कर बया का घोसला
अपने आवारा पूंजी से सने
ड्राइंग रूम में
नहीं हो सकती कविता
लोक की ।
वहां अब भी
माटी बोलती है
भेद खोलती है
कि जो लोग
लाठी से थन छूते हैं
वे नहीं जानते
कि दूध की अपनी ताकत क्या है ?
जिन्होंने केवल दूध पीया है
वे क्या जाने कि मरखनी गाय को
न्याने से बांधकर
नसीटना पड़ता है दूध
तब अंगूठे ही जानते हैं
कि गाय,थन और बाल्टी के
त्रिभुज पर टिका
श्रम का संगीत
लोक-लय का सृजन करता है ।
कभी कभार
टांग कर बया का घोसला
अपने आवारा पूंजी से सने
ड्राइंग रूम में
नहीं हो सकती कविता
लोक की ।
वहां अब भी
माटी बोलती है
भेद खोलती है
कि जो लोग
लाठी से थन छूते हैं
वे नहीं जानते
कि दूध की अपनी ताकत क्या है ?
जिन्होंने केवल दूध पीया है
वे क्या जाने कि मरखनी गाय को
न्याने से बांधकर
नसीटना पड़ता है दूध
तब अंगूठे ही जानते हैं
कि गाय,थन और बाल्टी के
त्रिभुज पर टिका
श्रम का संगीत
लोक-लय का सृजन करता है ।
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