Saturday, 22 June 2013

देश के हिंदी विभाग लम्बे समय तक रीतिवाद के प्रतिमानों से साहित्य-संस्कृति  को आंकते रहे । दिल्ली विश्व-विद्यालय ही  लम्बे समय तक नगेन्द्र के "रस सिद्धांत" में डूबा  रहा । कालेजों विश्व-विद्यालयों में नौकरी लगवाना भी ऐसे ही " आचार्यों के निरंकुश हाथों में रहा । आज तक भी इससे पूरी तरह मुक्ति कहाँ मिल पाई है ? लेकिन किसी भाषा -संस्कृति का विकास केवल हिंदी अध्यापकों या कुछ साहित्य सर्जकों के हाथों में नहीं हुआ करता । उसमें पूरी जाति को खपना पड़ता है । समाज- विज्ञानियों और वैज्ञानिकों सभी को । अंगरेजी को विकसित करने में उस जाति के वैज्ञानिकों-समाज-विज्ञानियों , औद्योगिक प्रबंधन आदि सभी का तो योगदान है । हमारे देश की सभी जातियों ने औपनिवेशिकता का क्रूर अभिशाप भोगा है । यह तो भला हुआ स्वाधीनता -आन्दोलन का कि हिंदी उसके माध्यम से ज्ञान की चारों दिशाओं में फ़ैली और उसको महावीर प्रसाद द्विवेदी जैसा अग्रचेता "सम्पादक" प्रेरक और दूर-दृष्टा
व्यक्तित्व मिला । बहरहाल , इस सन्दर्भ में राम विलास जी की याद आती है , जिसने अपने अंगरेजी ज्ञान के माध्यम  से हिंदी को चारों कोने फैलाने की कोशिश की । साहित्य से कम बड़ा काम उन्होंने भाषा के क्षेत्र नहीं किया ।

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