वर्तमान तथाकथित नव-उदारवादी व्यवस्था ने तीर्थ-स्थानों को बाजारू पर्यटन में बदलकर पहाड़ों-सरिताओं के प्राकृतिक सौन्दर्य को तबाह कर दिया है उसी का परिणाम है यह प्रकृति -आक्रोश और उसकी विध्वंश -लीला । हम जब तक कारण की तलाश में गहरे नहीं उतरेंगे तब तक उसके सही समाधान तक नहीं पहुच सकते । इस समय एक ओर
प्रकृति है तो दूसरी ओर विकास की वे अथाह दौलत वाली शक्तियां जो
प्रकृति-दोहन को ही "विकास" की अवधारणा के रूप में स्थापित कर चुकी हैं ।
वे जानती हैं कि यह सब शमशानी वैराग्य की तरह है । कुछ दिनों में सब भुला
दिया जाएगा और जल्दी ही लोग क्रिकेट की हार-जीत के धंधे में लग जायेंगे ।
किसी बात से सबक लेना यदि हमने सीखा होता तो महाशक्ति बनने का सपना देखने -दिखाने वाले देश को यह त्रासदी नहीं देखनी पड़ती । अब यहाँ भी मंदिर बनाने वाले फिर आ रहे हैं ।
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