जो लेखक खतरे पैदा करता है और स्वयं खतरे उठाकर पाठकों को भी ऐसी ही
नसीहतें देता है वह भला कला की कीमियागीरी और आधुनिक रीतिवाद के उपासक
'साहित्यकारों ' को क्यों कर पसंद आयेगा ? फिर भी कुछ हैं जो फटे जूते वाले
प्रेमचंद को किसी से किसी भी तरह कम नहीं मानते । उनके साहित्य पर करोड़ों
नोबल पुरस्कारों को न्योछावर किया जा सकता है । जिनके दिमाग अभी भी
औपनिवेशिक दासता के घटाटोप से मुक्त नहीं हो पाए हैं और जिनकी सारी जिन्दगी
पुरस्कारों के आस पास घूमती है । वे किसी भी बहाने से उसी तरह के रास्तों
को खोज निकालते हैं । रहा गुरुदेव टैगोर का सवाल , साहित्य - संस्कृति के
निर्माण में उनका कोई छोटा योगदान नहीं है । वे अपने मुक्तिकामी साहित्य से
महान हैं न कि नोबल प्रस्कार से ।
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