तीसरा नेत्र

Thursday, 24 September 2015

मनुष्यता को बचाने वाले कम नहीं थे
कदम कदम डेरे बसेरे थे उनके
सड़कें थी गाडियां थी
आसमान को छूने वाली आतिशबाजियां थी
तरह तरह के घुड़सवार थे
बग्घियां थी राजसी ठाठ वाली
कितना कुछ था मनुष्यता को बचाने क़ो
एटम बम भी मनुष्यता के लिये ही था
कविताओं की एक दुनिया थी
जो मनुष्यता को बचाने के अलावा
दूसरा कोई काम ही नहीं करती थी
अनेक लोग थे जो
बेपढों को पढ़ाने का काम करते थे
पर्यावरण की चिन्ता में डूबे लोग
कुछ ज्यादा कर न पाने की वजह से
अवसादग्रस्त होने की स्थिति में थे
कुछ लोगों ने दुनिया की ज्यादातर दौलत को
अपने कब्जे में कर लिया था
वे भी यही अखबारों में लिखवाते थे
कि मनुष्यता को बचा रहे हैं।
तानाशाहियां और लोकतंत्र दोनों के पास ही
अपने अपने संविधान थे
दोनों का जोर शोर से यही कहना था
कि वे मनुष्यता की रक्षा के सिवा
और कोई काम नहीं कर रहे हैं
खुशी की बात है
कितना कितना किया जा रहा है
मनुष्यता को बचाने के लिये ।
Posted by जीवन सिंह at 02:40 1 comment:
Email ThisBlogThis!Share to XShare to FacebookShare to Pinterest

Sunday, 20 September 2015

ग्यान और क्रिया का संचालन
इच्छा से होता है
इसलिये राजनीतिज्ञ
सिर्फ
इच्छाओं के जंगल उगाते हैं ।
Posted by जीवन सिंह at 00:20 No comments:
Email ThisBlogThis!Share to XShare to FacebookShare to Pinterest
देश आजाद हुआ तब गांव में बीस कुओं से भी अधिक पीने के पानी और खेत सींचने के काम आते थे इस समय उनमें से पांच कुओं से अधिक चालू नहीं हैं ।यही हाल पोखर,तालाब और ताल तलैयों का है ।पानी जीवन का आधार होता है ।वह बदलता है तो उसके साथ बहुत कुछ बदल जाता है ।आधार बदलने से अधिरचना भी बदल जाती है ।
Posted by जीवन सिंह at 00:18 No comments:
Email ThisBlogThis!Share to XShare to FacebookShare to Pinterest
मुक्तिबोध की सिफ्त यह रही है कि हर सवाल की शुरूआत वे खुद से करते हैं जबकि दूसरे अधिकांश खुद को बचाकर ।आत्मबोध उनकी ऐसी शक्ति है जो उनके हर विचार को अनुभव की आंच में पकाकर सौ टंच खरा बना देती है ।जीवनानुभवों ने उनके रचना कर्म में वह निखार पैदा कर दिया है जो दूर से सूरज की तरह दमकता है।
Posted by जीवन सिंह at 00:16 No comments:
Email ThisBlogThis!Share to XShare to FacebookShare to Pinterest
हिन्दी दिवस पर आंसू बहाने के बजाय गम्भीर चिन्तन मनन और आत्मोन्नयन की ज्यादा जरूरत है।हिन्दी अब लडकपन से आगे सयानी होती हुई एक बेहद सरस और निखरती हुई भाषा है ।
Posted by जीवन सिंह at 00:14 No comments:
Email ThisBlogThis!Share to XShare to FacebookShare to Pinterest
हिन्दी की चाहे जो सीमा रही हो ,वह कभी शर्म की भाषा नहीं रही ,जिस भाषा को बोलने वालों ने उपनिवेशवाद के विरुद्ध १८५७ का संग्राम लडा हो .वह गर्व करने की भाषा नहीं होगी तो और क्या होगी ।
Posted by जीवन सिंह at 00:11 No comments:
Email ThisBlogThis!Share to XShare to FacebookShare to Pinterest
जो लोग समझते हैं कि केवल साहित्य रचना से हिन्दी भाषा ज्ञान समृद्ध हो जायगी वे बहुत भारी मुगालते में हैं ।कोई भी भाषा सम्पूर्ण जीवन व्यवहार को जब तक ज्ञान के दायरे में नहीं लाती तब तक वह अपंग रहती है।हिन्दी के लगभग सभी जीवन क्षेत्र अभी तक अपने ज्ञानात्मक व्यवहार के लिए अंग्रेजी पर निर्भर हैं,इसलिये वह एक टांग पर घिसट रही है ।इस स्थिति को जब तक खत्म नहीं किया जायगा ,उसकी विकलांगता समाप्त नहीं होगी ।हिन्दी क्षेत्र के विश्वविद्यालय यदि ईमानदारी से कमर कस लें तो दस साल में आसानी से इस काम को कर सकते हैं।
Posted by जीवन सिंह at 00:10 No comments:
Email ThisBlogThis!Share to XShare to FacebookShare to Pinterest
अंग्रेजी में गौरव का अनुभव और उसका सतत बखान करने वाला समाज जब हिन्दी की बात करता है तो हंसी आए बिना नहीं रहती ।
Posted by जीवन सिंह at 00:09 No comments:
Email ThisBlogThis!Share to XShare to FacebookShare to Pinterest
हिन्दी दिवस के नाम से चालू हुए कर्मकाण्ड से अब जितनी जल्दी मुक्ति मिल जाय उतना ही हिन्दी का भला है ।इससे ऊर्जा,समय और धन तीनों की बचत होगी और हिन्दी दिवस के नाम से होने वाले पाखण्ड से भी मुक्ति मिलेगी ।हिन्दी को ज्ञान समृद्ध बनाकर ही उसे विश्वभाषाओं में स्थान दिलाया जा सकता है।
Posted by जीवन सिंह at 00:08 No comments:
Email ThisBlogThis!Share to XShare to FacebookShare to Pinterest
कोई भी भाषा अपने आधार भाषाई समूह की रागात्मक एवं तार्किक इच्छा शक्ति से विकसित व
प्रतिष्ठित होती है ।
Posted by जीवन सिंह at 00:05 No comments:
Email ThisBlogThis!Share to XShare to FacebookShare to Pinterest
जीना वही सिखा सकता है जिसने खुद पहले अच्छी तरह से जीना सीख लिया हो ।
Posted by जीवन सिंह at 00:03 No comments:
Email ThisBlogThis!Share to XShare to FacebookShare to Pinterest
देश में
स्कूल ,कालेज
और बडे आकार वाले
अनेक विश्वविद्यालय हैं
लेकिन शिक्षा नहीं है ।
Posted by जीवन सिंह at 00:02 No comments:
Email ThisBlogThis!Share to XShare to FacebookShare to Pinterest
तानाशाह
तभी पैदा होता है
जब लोगों में
तानाशाही की चाहत
पैदा कर दी जाती है ।
Posted by जीवन सिंह at 00:01 No comments:
Email ThisBlogThis!Share to XShare to FacebookShare to Pinterest

Saturday, 19 September 2015

मुक्तिबोध को इस संसार से गये आज इक्यावन साल हो गये ।लगता है अंधेरे में कविता इन्हीं दिनों लिखी गई है ।समय की इतनी मजबूत पकड वाला शायद ही कोई दूसरा हो ।
Posted by जीवन सिंह at 23:58 No comments:
Email ThisBlogThis!Share to XShare to FacebookShare to Pinterest
पहले जब गांव आता था
अपने खेतों ,स्कूल और पुनाहना मेवात की ओर जाने वाली सडक के एक किनारे पर पोखर .,
पोखर किनारे पीपल नीम के छोटे बडे बजुर्ग दरख्त देखता था
लगता था वे मुझसे पूछ रहे हैं
कि बहुत दिनों में आए हो
उस जगह को भूल गए
जहां गाय के खूंटे के पास
तुम्हारा नाल गढा है
इसी गाय के खूंटे पर
तुम्हारी लटूरियों को उतारा गया था
अब अलवर जाकर बडी बडी बातें करते हो
समाज परिवर्तन की
क्रान्ति की
साहित्य के सौन्दर्य विधान की
दुनिया को बदलने की
यही तो करता है
हर कोई
पर सब कुछ भूलकर
जब अपना पेट भर लेता है
उपदेश के तरु से फूल झडते हैं
जब अपनी एक कोठी बंगला
किसी शहर में बन जाता है
कहते हैं कि ईमानदारी और गरीबी में
एक रिश्ता होता है
जैसे होता है अमीरी और बेईमानी में
अमीरी अपना गांव जनपद देश
सब भूल जाती है
यह गरीबी और खेती ही है
जो अपना गांव देश जनपद
न भूल पाती है न छोड पाती है
हमको मालूम हुआ है
तुम वहां जाकर अपनी ब्रज मेवाती को
भूल गये हो बच्चों को अंगरेजी निष्णात
बनाकर फख्र करते हो
हमको भी ललचाते हो
हम भी तुम्हारे पिछलग्गू हो गये हैं
हमको भी हवा लग चुकी है तुम्हारी
अब हमारे दिन भी ज्यादा नहीं हैं
अबकी बार जब गांव आओगे
हमको यहां नहीं पाओगे
बाजार पोखर की तरफ बढ रहा है
उसके हाथ लम्बे हैं
राक्षस भी उसके सामने कुछ नहीं
उसके दांत दैत्यों से बडे हैं
उसकी गिरफ्त से कौन बचा है
सचमुच इस बार जब गांव आया हूं
तो पोखर के वे पेड कहीं नजर नहीं आते
अब वहां
दुकानों की नींव खुद रही है ।
Posted by जीवन सिंह at 23:55 No comments:
Email ThisBlogThis!Share to XShare to FacebookShare to Pinterest
किसी देश में राष्टृतीयता का भाव कितना सुदृढ है इस बात का पता इस बात से चलता है कि उस देश के नागरिक अपनी भाषाओं से कितना प्यार करते हैं ।
Posted by जीवन सिंह at 23:51 No comments:
Email ThisBlogThis!Share to XShare to FacebookShare to Pinterest
धर्म का गोरखधंधा अभी तक इसलिये मौजूद है क्योंकि राजनीति अभी तक उसका विकल्प नहीं बन सकी है ।
Posted by जीवन सिंह at 23:49 No comments:
Email ThisBlogThis!Share to XShare to FacebookShare to Pinterest
प्रकृति ने जीवन को संघर्षमय बनाया है और मनुष्य ने उसे अपनी दिमागी अच्छाई और कुटिलता से और अधिक संघर्षमय बना दिया है ।इससे स्थितियां अदलती बदलती रहती हैं ।किसी की बन जाती है तो किसी की बनी हुई बिगड जाती है ।ऐसी स्थिति में एक दृष्टान्त के रूप में मेरा स्मृतिशेष अनुज अक्सर इस मेवाती दोहे को कहता था #
समय बिगडगौ सरप कौ/बिगडी कौ का मोल।
मणिधारी की पीठ पे /दादर करां किलोल ।#
इसके पीछे एक बात भी कहता था कि घास खोदने वाली दो औरत एक नदी के किनारे से गुजर रही थी ।वे यह देखकर अचम्भे में पड गई कि बहते हूए सर्प की पीठ पर एक मेंढक बैठा हुआ उसीके साथ बह रहा था ।इस स्थिति को देखकर मेवाती लोक कवि ने यह दोहा कहा ।
Posted by जीवन सिंह at 23:48 No comments:
Email ThisBlogThis!Share to XShare to FacebookShare to Pinterest
मेवात में
मेरा गांव
टटलूबाजी के लिये
सबसे ज्यादा बदनाम है
लेकिन इस सत्य को
कौन जानता है
कि इसमें गति तब से आई
जब दिल्ली में
धन नीति को
उदारता के वेश में
सजाया गया
टटलूबाजी में
पीतल की ईंट को
सोने की बना देने की कला
स्वर्ण मृग से प्रभावित
पता नहीं कितनी रही होगी
किन्तु यह सच है
कि गांव में इसमें तेजी तब आई
जब दिल्ली में
कामनवेल्थ खेल घोटाला सामने आया
और जब
कोयला घोटाले से ऊंचे लोग
मालामाल हुए
पीतल से बनी सोने की ईंट का
कारोबार एक दिन में नहीं चला
यह वैसे वैसे फलाफूला
जैसे जैसे नौकरशाही और नेतागीरी ने
जयपुर भोपाल लखनऊ पटने में
पीतल को सोने में बदला
पटवारी ने पटवार हल्के में
थानेदार ने थाना क्षेत्र में
जो जहां है अधिकारी है
कारोबारी है
पीतल को सोने में बदल रहा है
सब जगह
यही जादू चल रहा है
ऐसे ही कारोबारी रिश्तों से
आजकल शहर और गांव के बीच का
नया वृक्ष फल रहा है।
Posted by जीवन सिंह at 23:42 No comments:
Email ThisBlogThis!Share to XShare to FacebookShare to Pinterest
गांव में रहते हुए आज तेरहवां दिन है ।भाइयों का एक दिन और रुक जाने का आग्रह है।कष्ट तो है लेकिन सोचता हूं कि इनको तो पूरा जीवन ही इन कष्टों में गुजारना है।ये इसके अभ्यस्त हो चुके हैं ।भीषण गर्मी और बिजली की आंखमिचौनी ,यही बहुत भारी कष्ट है ।आमदनी की कमी होने से महंगे
शहरी जीवन जैसी सुविधाओं से महरूम ।वर्गीय जीवन का खुला परिदृश्य। जीवन तो जीवन है ।वह चाहे जहां हो।इसलिये आज यहां और ठहर जाने का निर्णय करके सुबह अपने खेतों की तरफ निकल गया ।बटवारा होते होते हम सात भाइयों के बीच में सात सात बीघे खेत हिस्से में आये हैं ।यदि पेंशन नहीं होती .खेती पर ही पूरी तरह निर्भर होता तो भूखों मरने की नौबत आ जाती इसलिये सोचता हूं कि जो परिवार आज केवल खेती पर निर्भर हैं उनकी कैसी हालत होगी।
इस समय खरीफ की फसल खेतों में खडी है वर्षा का इन्तजार करती हुई ।झील के खेतों में पानी की सरसाई रहने की वजह से पूठ के खेतों से अच्छी फसल है ।ज्वार के पौधे आठ आठ फीट ऊंचे होंगे ।बाजरा ठसक के साथ पकाव के इन्तजार में है।बगल में ही जहां पानी का ठहराव अधिक है धान बोया हुआ है लेकिन अभी बाल जहां तहां ही निकली हैं।हरा कचन्द है।सहज प्राकृतिक मनमोहक हरीतिमा।पास में डीजल का पम्प चल रहा है ।धान की भराई हो रही है।एक मेव किसान ने अधबटाई पर एक महाजन के खेत ले रखे हैं।यहीं एक कच्चा घर बनाया हुआ है ।बगल में गाय और भैंस बंधी है।सूरज आसमान में ऊपर चढ आया है जिसकी किरणें स्कूल भवन के बगल में कभी चिमन बाग के नाम से जाने वाले खेतों पर पड रही है।यह बागों का जमाना नहीं ।यह चिमन बाग कभी अपने बेरों के लिये मशहूर था ।अब इसकी वह रौनक नहीं।इससे थोडी सी दूरी पर दीवान जी का बाग था।अब वह बाग भी गायब है।इसके खेतों में एक साथ बीस दुकान बन गयी हैं ।यहीं बगल में गोपाल कुंड है।जिसे लगभग दो सौ साल पहले गांव सेठ लालाओं ने बनवाया था ।यह शताब्दी से अधिक समय तक गांव की अधिकांश आबादी का स्नान ध्यान केन्द्र बना रहा ।इसके उत्तरी और दक्षिणी घाटों पर दोनों तरफ बडे बडे भवन बनाकर उन पर कलात्मक और दीर्घाकार चित्रांकित छतरियां बनाई गयी हैं।पश्चिमी घाट पर गोपाल मन्दिर बना हुआ है ।इस मन्दिर में बचपन में हमने सावन के महीने में गोपाल राधा को खूब हिंडोले झुलाया है।पूरब दिशा खाली और खुली हुई है।इस दिशा में एक बाग लगाया गया था जिसमें खिरनी ,जामुन,मौलश्री के पेडों के नीचे बचपन में अपने सहपाठियों के साथ हम खूब खेलते थे।आज भी जब पुराने सहपाठी मिलते हैं तो उन दिनों की याद करना नहीं भूलते ।जब वर्तमान ज्यादा तनाव भरा होता है तो अतीत सम्मोहनकारी लगने लगता है।असल बात सम्बन्धों की है।इससे पूर्व के सामन्ती रिश्तों में भी आज जैसा अलगाव और अजनबीपन नहीं था ,इसलिये लोग उन दिनों को याद करने लगते हैं ।
Posted by जीवन सिंह at 05:00 No comments:
Email ThisBlogThis!Share to XShare to FacebookShare to Pinterest
मुझे क्यों लगता है
कि जिसे जहां और जैसे होना चाहिये था
वैसा नहीं है
जहां होनी चाहिये थी सडक
वहां सभी रास्ते बन्द हैं
पानी की जगह संसद है
जिसमें सब कुछ होता है
सिर्फ वह नहीं होता
जो होना चाहिये था
संसद की जगह पर पानी है
जहां मछलियां प्यासी मरती हैं
कैसे सोचकर कहां पहुंचा जाय
यह शायद किसी को पता नहीं
हमको ऐसी आदत पड चुकी है
कि जब आग लग जाती है
तब कुआ खोदते हैं
जो कविता में गांव जनपद का महिमा गायन करते हैं वे एक रात वहां बिताना नहीं चाहते
हमने आम खाने की जगह पर
सारा समय पेडों की गिनती करने में बिताया
हमने कविता रचने की बजाय
लिखने का काम अधिक किया
जिसने रचा वह आज भी हृदय पर अंकित है
उसके गीत खूब गाए
पर सीखा कुछ भी नहीं
हमने विडम्बना विसंगति प्रतिरोध की
कितनी यशगाथा लिखी
पर सच के नजदीक नहीं पंहुच पाए
हमने चेले बनाए
पर कबीर की तरह
गुरु की पहचान न कर सके
शत्रु ने संस्कृति के आंगन में मजबूती से
अपने पैर जमाए
जहर के वृक्ष लगाए
अब उसमें फल लग गए हैं ।

Posted by जीवन सिंह at 04:53 No comments:
Email ThisBlogThis!Share to XShare to FacebookShare to Pinterest

Friday, 18 September 2015

मिथकों में जीने वाला समाज ऐसी बेडियों में जकडा रहता है जो उसने स्वयं अपने हाथों से
खुश होकर लगाई हैं ।इतना ही नहीं वह उनके लिये इन्सानों की हत्या करने तक को अपना धर्म मानकर अंजाम देते हुए गौरव का अनुभव करता है।
Posted by जीवन सिंह at 23:40 No comments:
Email ThisBlogThis!Share to XShare to FacebookShare to Pinterest
18 सितम्बर  2015 जुरहरा से डीग , अलवर यात्रा में 

अपने गांव जुरहरा से अलवर आ रहा हूं।सुबह अखबार वाली गाडी डीग तक आती है। डीग से अलवर के लिये पैसेन्जर रेल मिलती है।डीग में सुबह के आठ बज गये हैं ।रेल का इंतजार है ।सामने रेल आती दिखाई दे रही है।यह ब्रज का इलाका है।इन दिनों डीग में लठावन का मेला चल रहा है।डीग भरतपुर रियासत के अठारहवीं सदी के एक प्रतापी राजा जवाहर सिंह के नाम पर इस मेले का नाम जवाहर प्रदर्शनी रखा गया है । डीग के विश्व प्रसिद्ध महल भवन कहलाते हैं।इनमें गोपाल भवन सबसे अनूठा है।लाल पत्थर पर कुराई का बहुत बारीक कलात्मक काम कराया गया है।आगरा में बने ताजमहल के बाद इनका निर्माण हुआ था।सौन्दर्य संरचना में ये ताज से बहुत पीछे नहीं हैं।इस मौके पर इन महलों में रंग बिरंगे मनमोहक फव्वारों की छटा देखते बनती है।डीग में एक जमीनी दुर्ग उस समय बनाया गया था.जब डीग भरतपुर के पहले राजा बदन सिंह ने डीग को अपनी रियासत की राजधानी बनाया था ।भरतपुर को इसके बाद बसाया गया ।वहां सूरजमल ने एक ऐसा दुर्ग बनवाया जिसे अंगरेज जरनल लेक भी जीतने में कामयाब नहीं हो सका।इस घटना के बाद इस किले को लोहागढ कहा जाने लगा।
रेल में कुछ यात्री नासिक कुम्भ से होकर आये हैं।काया माया की ऐसे चर्चा कर रहे हैं जैसे जीवन का सारा रहस्य इनको मालूम हो चुका है।यही वह सामान्य लोक है जो आज भी मिथकों की दुनिया में जीता है और प्रत्यक्ष दुनिया से अधिक बडा सच मिथकीय संसार को मानता है।अभी अभी डिब्बे में एक जोगी वेषधारी व्यक्ति अपने ऊपर देवी के आने का नाटक कर रहा है और लोग हैं कि उसे सच मान रहे हैं ।मेरे बगल में बैठा एक यात्री सहयात्रियों को बतला रहा है कि साब चमत्कार तो होता है।जब मैने इसका प्रतिवाद किया तो कहने लगा कि आप मानें या न मानें साब हम तो मानते हैं ।संकट यह है कि डिब्बे में मानने वालों की तादाद ज्यादा थी।ऐसा ही है आज का लोकमानस .जिसकी वजह से ,देश में सही और सच्ची सेक्युलर राजनीतिक संस्कृति नहीं पनप पाती।ऐसा लोकमानस ही साम्प्रदायिक राजनीति के लिये एक मजबूत आधार मुहैया कराता है।
लगभग एक माह की भादों की कडकडी और चिलचिली धूप पडने के बाद आज आसमान में उतरती बरसात के मेघ घिर आए हैं।कामना यही है कि बरस पडें और किसान जन का संकट हरण करें ।उसका इस दुनिया में कोई नहीं ।यही वजह है कि वह आज भी आदमी की दुनिया से ज्यादा भरोसा मिथकीय दुनिया पर करता है।वह प्रकृति को ज्यादा नहीं जानता ।उसे अप्राकृतिक शक्तियों पर ज्यादा भरोसा है। इसीलिये आज भी वह वर्षा के लिये यज्ञ करता है,चामुण्डा का जागरण करता है।ज्योतिषियों से पूछता है कि पंडित जी बरसात कब होगी। उसे मौसम विज्ञान पर उतना भरोसा नहीं जितना अपने आसपास के पारम्परिक फलित ज्योतिषियों पर है।बहरहाल,गाडी हर स्टेशन पर ठहर रही है।अलवर में अपने कामकाज करने के लिये नगर ,गोविन्दगढ ,रामगढ स्टेशनों से सवारियां उतरी चढी हैं।कोई आ रहा है तो कोई जा रहा है ।यही क्रम है संसार का।डीग से जब यह गाडी चली थी तो यहां के प्रसिद्ध बेरों के बागों के बीच से होकर गुजरी थी।डीग के बेरों की तरह अलवर में रामगढ और तिजारा के बागू बेर मशहूर हैं। माघ फागुन के आसपास इनकी बहार रहती है।डीग से अलवर की तरफ अगला स्टेशन आता है बेढम।यहां के एक अलगोजा वादक थे जवाहर सिंह बेढम ,दो दोअलगोजे एक साथ बहुत सुरीले अन्दाज में झूम झूमकर बजाते।ब्रज के रसिया बजाते तो लोटपोट कर देते।दो साल पहले ही उनका देहावसान हुआ ।रेल जब जब बेढम से गुजरती है उनकी याद आए बिना नहीं रहती।ग्वारिया थे,बालपन और जवानी में गाय चराईं,तभी अलगोजा वादन की कला सीख ली,जैसे अलवर के मशहूर भपंग वादक जहूर खां ने भपंग वादन की कला बीडी बेचते हुए सीखी।कला का निराला संसार ही है जो जिन्दगी को अलग तरीके से संवारता है।
गाडी अपनी गति से चल रही है।आसमान में मेघ अपनी गति से।मौसम में नमी आती जा रही है।यद्यपि खेतों में खडा बाजरा वर्षा के अभाव में सूख रहा है।बाजरे की बालों पर अजीब तरह की उदासी पसरी हुई है जो किसान के चेहरे की लकीरों में दिखाई देती है।खेतों में दूसरी बडी फसल कपास की है।इस समय उसमें डोडी खिल रही है। तुलसी ने साधु चरित्र को कपास के समान कहा है साधु चरित सुभ चरित कपासू।निरस बिसद गुनमय फल जासू।यह शुभ चरित्र खेतों में दूर दूर तक पसरा हुआ है।रेल मार्ग के दोनों तरफ बबूल के पेडों की भरमार है जिनमें इस समय पीले फूलों की पंचायत सी हो रही है।ऊंटवाल स्टेशन निकल चुका है।अलवर आने वाला है।अलवर उतरने वाले यात्री अपना सामान संभाल रहे हैं।जयपुर की ओर यात्रा करने वाले निष्फिक्र बैठे हुए हैं।हमने भी उतरने की तैयारी कर ली है ।दरवाजे पर आकर प्लेटफार्म आने का इंतजार कर रहा हूं।अन्यथा अलवर से चढने वाले यात्री नीचे उतरने नहीं देंगे।



  • Ajay Varma डीग के महल
    Ajay Varma की फ़ोटो.

  • Ajay Varma डीग का क़िला
    Ajay Varma की फ़ोटो.



  • Posted by जीवन सिंह at 23:27 No comments:
    Email ThisBlogThis!Share to XShare to FacebookShare to Pinterest
    प्रशंसास्त्र से ज्यादा खतरनाक परमाणु बम भी नहीं होता।परमाणु बम शरीरों का अन्त करता है जबकि प्रशंसास्त्र आत्मा का ।
    Posted by जीवन सिंह at 23:13 No comments:
    Email ThisBlogThis!Share to XShare to FacebookShare to Pinterest
    प्रकृति ने जीवन को संघर्षमय बनाया है और मनुष्य ने उसे अपनी दिमागी अच्छाई और कुटिलता से और अधिक संघर्षमय बना दिया है ।इससे स्थितियां अदलती बदलती रहती हैं ।किसी की बन जाती है तो किसी की बनी हुई बिगड जाती है ।ऐसी स्थिति में एक दृष्टान्त के रूप में मेरा स्मृतिशेष अनुज अक्सर इस मेवाती दोहे को कहता था #
    समय बिगडगौ सरप कौ/बिगडी कौ का मोल।
    मणिधारी की पीठ पे /दादर करां किलोल ।#
    इसके पीछे एक बात भी कहता था कि घास खोदने वाली दो औरत एक नदी के किनारे से गुजर रही थी ।वे यह देखकर अचम्भे में पड गई कि बहते हूए सर्प की पीठ पर एक मेंढक बैठा हुआ उसीके साथ बह रहा था ।इस स्थिति को देखकर मेवाती लोक कवि ने यह दोहा कहा ।
    Posted by जीवन सिंह at 23:09 No comments:
    Email ThisBlogThis!Share to XShare to FacebookShare to Pinterest
    सम्भव हो तो साहित्यकारों को अपने स्तर पर ,छोटे स्तर के ही सही, हिन्दी विश्व सम्मेलन आयोजित करने चाहिये ।सत्ता के हिन्दी सम्मेलन तो पक्षपाती ,भेद राजनीति वर्धक और अहम्मन्यता से भरे ही होंगे ।
    Posted by जीवन सिंह at 23:04 No comments:
    Email ThisBlogThis!Share to XShare to FacebookShare to Pinterest
    Newer Posts Older Posts Home
    Subscribe to: Posts (Atom)

    Blog Archive

    • ►  2017 (1)
      • ►  August (1)
    • ▼  2015 (89)
      • ▼  September (26)
        • मनुष्यता को बचाने वाले कम नहीं थे कदम कदम डेरे ब...
        • ग्यान और क्रिया का संचालन इच्छा से होता है इसलिय...
        • देश आजाद हुआ तब गांव में बीस कुओं से भी अधिक पीने...
        • मुक्तिबोध की सिफ्त यह रही है कि हर सवाल की शुरूआत...
        • हिन्दी दिवस पर आंसू बहाने के बजाय गम्भीर चिन्तन म...
        • हिन्दी की चाहे जो सीमा रही हो ,वह कभी शर्म की भाष...
        • जो लोग समझते हैं कि केवल साहित्य रचना से हिन्दी भ...
        • अंग्रेजी में गौरव का अनुभव और उसका सतत बखान करने ...
        • हिन्दी दिवस के नाम से चालू हुए कर्मकाण्ड से अब ज...
        • कोई भी भाषा अपने आधार भाषाई समूह की रागात्मक एवं ...
        • जीना वही सिखा सकता है जिसने खुद पहले अच्छी तरह से...
        • देश में स्कूल ,कालेज और बडे आकार वाले अनेक विश...
        • तानाशाह तभी पैदा होता है जब लोगों में तानाशाही क...
        • मुक्तिबोध को इस संसार से गये आज इक्यावन साल हो गय...
        • पहले जब गांव आता था अपने खेतों ,स्कूल और पुनाह...
        • किसी देश में राष्टृतीयता का भाव कितना सुदृढ है इस...
        • धर्म का गोरखधंधा अभी तक इसलिये मौजूद है क्योंकि र...
        • प्रकृति ने जीवन को संघर्षमय बनाया है और मनुष्य न...
        • मेवात में मेरा गांव टटलूबाजी के लिये सबसे ज्याद...
        • गांव में रहते हुए आज तेरहवां दिन है ।भाइयों का ...
        • मुझे क्यों लगता है कि जिसे जहां और जैसे होना चा...
        • मिथकों में जीने वाला समाज ऐसी बेडियों में जकडा रह...
        • 18 सितम्बर  2015 जुरहरा से डीग , अलवर यात्रा में...
        • प्रशंसास्त्र से ज्यादा खतरनाक परमाणु बम भी नहीं ह...
        • प्रकृति ने जीवन को संघर्षमय बनाया है और मनुष्य न...
        • सम्भव हो तो साहित्यकारों को अपने स्तर पर ,छोटे स्...
      • ►  August (22)
      • ►  July (40)
      • ►  January (1)
    • ►  2014 (74)
      • ►  September (1)
      • ►  July (1)
      • ►  June (1)
      • ►  May (11)
      • ►  April (27)
      • ►  March (6)
      • ►  February (4)
      • ►  January (23)
    • ►  2013 (272)
      • ►  December (30)
      • ►  November (61)
      • ►  October (29)
      • ►  September (26)
      • ►  August (74)
      • ►  July (24)
      • ►  June (16)
      • ►  May (7)
      • ►  April (1)
      • ►  February (3)
      • ►  January (1)
    • ►  2012 (133)
      • ►  November (1)
      • ►  October (10)
      • ►  September (16)
      • ►  August (19)
      • ►  July (20)
      • ►  May (1)
      • ►  April (17)
      • ►  March (7)
      • ►  February (7)
      • ►  January (35)
    • ►  2011 (8)
      • ►  December (8)
    My photo
    जीवन सिंह
    View my complete profile

    Followers

    Picture Window theme. Powered by Blogger.