Saturday 19 September 2015

मुझे क्यों लगता है
कि जिसे जहां और जैसे होना चाहिये था
वैसा नहीं है
जहां होनी चाहिये थी सडक
वहां सभी रास्ते बन्द हैं
पानी की जगह संसद है
जिसमें सब कुछ होता है
सिर्फ वह नहीं होता
जो होना चाहिये था
संसद की जगह पर पानी है
जहां मछलियां प्यासी मरती हैं
कैसे सोचकर कहां पहुंचा जाय
यह शायद किसी को पता नहीं
हमको ऐसी आदत पड चुकी है
कि जब आग लग जाती है
तब कुआ खोदते हैं
जो कविता में गांव जनपद का महिमा गायन करते हैं वे एक रात वहां बिताना नहीं चाहते
हमने आम खाने की जगह पर
सारा समय पेडों की गिनती करने में बिताया
हमने कविता रचने की बजाय
लिखने का काम अधिक किया
जिसने रचा वह आज भी हृदय पर अंकित है
उसके गीत खूब गाए
पर सीखा कुछ भी नहीं
हमने विडम्बना विसंगति प्रतिरोध की
कितनी यशगाथा लिखी
पर सच के नजदीक नहीं पंहुच पाए
हमने चेले बनाए
पर कबीर की तरह
गुरु की पहचान न कर सके
शत्रु ने संस्कृति के आंगन में मजबूती से
अपने पैर जमाए
जहर के वृक्ष लगाए
अब उसमें फल लग गए हैं ।

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