प्रकृति ने जीवन को संघर्षमय बनाया है और मनुष्य ने उसे अपनी दिमागी
अच्छाई और कुटिलता से और अधिक संघर्षमय बना दिया है ।इससे स्थितियां अदलती
बदलती रहती हैं ।किसी की बन जाती है तो किसी की बनी हुई बिगड जाती है ।ऐसी
स्थिति में एक दृष्टान्त के रूप में मेरा स्मृतिशेष अनुज अक्सर इस मेवाती
दोहे को कहता था #
समय बिगडगौ सरप कौ/बिगडी कौ का मोल।
मणिधारी की पीठ पे /दादर करां किलोल ।#
इसके पीछे एक बात भी कहता था कि घास खोदने वाली दो औरत एक नदी के किनारे से गुजर रही थी ।वे यह देखकर अचम्भे में पड गई कि बहते हूए सर्प की पीठ पर एक मेंढक बैठा हुआ उसीके साथ बह रहा था ।इस स्थिति को देखकर मेवाती लोक कवि ने यह दोहा कहा ।
समय बिगडगौ सरप कौ/बिगडी कौ का मोल।
मणिधारी की पीठ पे /दादर करां किलोल ।#
इसके पीछे एक बात भी कहता था कि घास खोदने वाली दो औरत एक नदी के किनारे से गुजर रही थी ।वे यह देखकर अचम्भे में पड गई कि बहते हूए सर्प की पीठ पर एक मेंढक बैठा हुआ उसीके साथ बह रहा था ।इस स्थिति को देखकर मेवाती लोक कवि ने यह दोहा कहा ।
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