Sunday, 20 September 2015

हिन्दी की चाहे जो सीमा रही हो ,वह कभी शर्म की भाषा नहीं रही ,जिस भाषा को बोलने वालों ने उपनिवेशवाद के विरुद्ध १८५७ का संग्राम लडा हो .वह गर्व करने की भाषा नहीं होगी तो और क्या होगी ।

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