Wednesday, 19 September 2012

आदरणीय भाई ,
आपका ई-मेल |मैंने दरअसल जो बात उठाई थी वह आलोचना के प्रसंग में थी |आलोचना -लेखन में आचरण-पतित होने का ख़तरा ज्यादा रहता है |यद्यपि यह ख़तरा आता कविता की तरफ से ही है |ख़राब कवितायेँ ख़राब आलोचना को जन्म देती हैं |जैसे एक कवि को व्यक्तित्व -साधना की जरूरत होती है वैसे ही आलोचक को भी |नामवर जी के साथ यही तो हुआ ,कि वे अपने रास्ते को छोड़ कर उसी रास्ते पर चल पड़े ,जिस पर अवसरवादी चलता है |ऐसा आलोचक ज्यादा नुकसान पहुँचाता है जिसकी छवि और कर्म में गंभीर फांक हो |नामवर जी को जब लगा कि कम्युनिस्ट आन्दोलन से कुछ ज्यादा बनने वाला नहीं है तो फिर 'राम ' को छोड़कर माया ही क्यों न बटोरी जाय |कम्युनिस्ट पार्टी से वे एम् .पी का चुनाव जब हार गए तो उनको अपना भविष्य अंधकारमय नज़र आने लगा होगा कि ऐसे तो कहीं के भी नहीं रहेंगे |उस समय सत्ता से अंदरूनी सम्बन्ध बनाए रखने वाले कई कवि-साहित्यकार थे ही |और उधर नयी कविता ,नयी कहानी और नयी समीक्षा की हवा बह रही थी ,उसी के साथ हो लिए |नागार्जुन,केदार और त्रिलोचन के पास कविता तो थी ,पर सत्ता नहीं |सत्ता के नज़दीक थे रघुवीर सहाय ,श्रीकांत वर्मा आदि |एक रास्ता निकल आया ,आलोचना बुद्धि काम आयी |दूसरा कोई ऐसा था नहीं ,जो हवा बदल देता क्योंकि आलोचना- कर्म यदि ईमानदारी से किया जाय तो कम कठिन नहीं होता |कविता की अमूर्तन कला में बहुत कुछ छिपा रह जाता है |आलोचना में बात छिप नहीं सकती |नाक की सीध में चलना पड़ता है |रूपवादी आलोचना को भी कोई ख़तरा नहीं रहता |इसलिए ज्यादातर लोग कविता के रूप के बारे में आधी अधूरी बातें करके आलोचना-कर्म की इतिश्री कर देते हैं | आजकल तो ''लोक ' का भी एक रूपवादी नक्शा बना लिया गया है |कुछ कवियों के पास तो दोनों तरह का माल है जिसको जैसी जरूरत हो ,ले ले |बहरहाल ,चुनौती और संघर्ष के ये ही मोर्चे हैं ,जिन पर लम्बी लड़ाई चलने की संभावना है | प्रसन्न होंगे |घर में सभी को यथा-योग्य अभिवादन |-----------आपका ------जीवन सिंह

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