आदरणीय भाई ,आपका ई-पत्र | दरअसल यह बड़ी लड़ाई है ,जो साहित्य के साथ-साथ जीवन के मोर्चे पर भी है |कलावाद में आसानी ही यह होती है कि व्यक्ति जीवन के संघर्षों से बच जाता है |बुजुआ वर्ग के मुआफिक कलावाद ही पड़ता है |यह उसी की विश्व -दृष्टि की उपज है| विडम्बना यह है कि इसमें वे लोग भी फंस जाते हैं जो जनवादी विश्व -दृष्टि के पक्षधर बनते हैं |अपनी परम्परा से विच्छेद होना भी इसकी एक वजह है |ऐसा लग रहा है जैसे रमाकांत जी अभी पूरी तरह से उबर नहीं पाए हैं | अन्यथा आपके फोन का तो जवाब देते ही |आप भी जयपुर नवम्बर तक पहुचेंगे या इससे पहले |सभी प्रसन्न होंगे | आदर सहित ----आपका ---जीवन सिंह
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