Wednesday 19 September 2012

आदरणीय भाई ,
आपकी विस्तृत ई -मेल पाकर खुशी हुई |आपने जो कहा है ,वह पूरी तरह सच है |मैं समझता हूँ इसका कारण वह मध्यवर्गीय चरित्र है जो एक ओर वामपंथी राजनीति को प्रभावित करता है तो दूसरी तरफ साहित्य,कला और संस्कृति को |मध्यवर्ग सब कुछ अपनी सुविधा से करना चाहता है |इसलिए बुर्जुआ तंत्र के जाल में फंस जाता है |आखिर जीवन ओर अस्तित्व की जो सुख -सुविधा बुर्जुआ तंत्र के साथ रहने पर मिलती हैं वह गरीबों की राजनीति के साथ रहने पर कैसे मिल सकती है |हमने देखा है कि आजादी मिलने से पहले जो कम्युनिस्ट कवि कहलाते और समझे जाते थे वे बाद में कैसी पलटी मार गए | कविता और आलोचना दोनों के भीतर ऐसा चारित्रिक गड़बड़झाला बहुत चलता है |नामवर जी और उनकी मंडली के साथ यही है | वामपंथ का रास्ता काँटों पर चलने वाला रास्ता है ,जिसमें भारी उपेक्षा सहनी पड़ती है और अटूट संघर्ष करना पड़ता है |रचनाकारों की पूरी की पूरी जमात है जो पुरस्कारों , सम्मानों और कैरियर-उत्थान के लिए इस धंधे में आती है | यशसे, अर्थकृते से आगे की सोचकर जो लिखेगा ,वही बड़े जीवन-संघर्ष के लिए तैयार होगा |सोवियत संघ के विघटन के बाद अवसरवाद की बाढ़ तेजी से आई ,जिसका प्रभाव आज सभी क्षेत्रों में दिखाई दे रहा है |आलोचना-लेखन में तो अवसरवाद की गुंजाइश ज्यादा रहती है |इस विधा में मिलावट की गुंजाइश इसे कैरियर का आधार बना लेने से और बढ़ जाती है |कितने ही उदाहरण हैं जब किसी बड़े अधिकारी की मिथ्या प्रशंसा करके लोगों ने ऊंचे-ऊंचे पद हथिया लिए हैं |आलोचना में व्यक्ति की चारण-वृत्ति को अवकाश ज्यादा रहता है |वह रचना पर आश्रित रहने से मूर्ख को ही विद्वान घोषित कर सकती है | खराब आलोचना का उदाहरण बने तो उसकी बला से |लेखक का जीवनतो सफल हो ही जाता है |लेकिन इसी में रास्ता निकलता है और देर से ही सही अच्छे -बुरे की पहचान होती ही है |आशा की कोई किरण यहीं है | प्रसन्न होंगे | अभिवादन सहित |
आपका -----जीवन सिंह

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