Monday 24 September 2012

आदरणीय भाई ,
आपका इ-पत्र | सच तो यह है कि चरित्र का संकट हर युग में रहा है |लोग ताकत के पक्ष में बदलते देर नहीं लगाते |कमजोर की ताकत को तो मार्क्सवाद ही दिखाता है |लेकिन यह तभी हो पाता है जब कि गहरी संवेदनशीलता और मूल्य-भावना व्यक्ति के मन और व्यवहार दोनों में हो |किताबी संवेदनशीलता का इज़हार तो कविताओं में खूब दिखाई पड़ता है किन्तु वह गहराई में उतरने से डरता है |वहाँ गुमनामी का ख़तरा नज़र आता है या फिर उसे निराला जी की तरह 'विक्षिप्त 'घोषित किये जाने का अभिशाप झेलने के लिए तैयार रहना पड़ता है |मीठी -मीठी गप्प और कडवी-कडवी थू करने से तो यहाँ काम चलता नहीं |यहाँ तो हर घड़ी परीक्षा का है | देखा जाय तो दुनियादारी के लिहाज से तो इस रास्ते पर चलने वाले को कडवे और कषैले स्वादों के लिए ही तैयार रहना चाहिए |यह प्रेम का घर है खाला का घर नहीं | हम जैसे को तो हमारी धारा --जनवाद ---में ही तिरस्कार भाव से देखा आता है और केवल ध्वंस की आलोचना लिखने वाले के खाते में डाल दिया जाता है |जनवाद में भी हमारा जनवाद --लोक की तरफ झुका होने से 'मध्यवर्गीय जनवादियों को रास नहीं आता ,न भाषा,न शिल्प,न मुहावरा , न प्रतीक-बिम्ब -रूपक, |उनको सब गंवारू और पिछड़ा हुआ लगता है जैसे कुलीनों और सामंतों को लगता रहा है | जबतक लोग अभावग्रस्त रहते हैं या पद-हीन या उपेक्षित ,तब तक फिर भी जनवाद का झंडा उठाए दीखते हैं लेकिन जैसे ही बुर्जुआ सिस्टम में कुछ पा जाते हैं वैसे ही कविता और सिद्धांत दोनों को ही आँख दिखाने लगते हैं |भरोसे की कसौटी पर खरा उतरना बहुत मुश्किल होता है |चौराहा मिलते ही राह बदलने में संकोच तक नहीं करते |ऐसे माहौल में नामवर-परम्परा को आगे बने रहने का मौक़ा मिल जाता है | अभी एक जगह मैनेजर पाण्डेय ने लोक और जन की तुलना करते हुए लोक को अमूर्त के खाते में डाल कर इसको सरकारी शब्द बतलाया और इसके समक्ष जन की हिमायत की |यह उन्होंने जनतंत्र का सच पर भाषण देते हुए कहा |यह एक ब्लॉग में पढ़ा |बहरहाल , मैंने अपने मन की बातें कहीं हैं जो मैं इन दिनों सोचता रहता हूँ |सभी प्रसन्न होंगे ----आदर सहित ------आपका ----जीवन सिंह
पुनश्च ---मैंने 'पहली बार , में पढ़ लिया है |लीक से हट कर है |बहुत अच्छा लगा |

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